एक ऐसा साहित्यकार जो हमेशा विवादों से घिरा रहा

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एक ऐसा साहित्यकार जो हमेशा विवादों से घिरा रहा Writer Saadat Hasan Manto

लेखक मंटो (Writer Saadat Hasan Manto) पर उनके जीवन काल में ही कई किताबें लिखी गई। मोहम्मद अब्दुल्ला की किताब “मंटो मेरा दोस्त” और उपेंद्रनाथ अश्क की “मंटो मेरा दुश्मन”। मशहूर आलोचक मोहम्मद हसन अस्करी ने लिखा है “मंटो की दृष्टि में कोई भी मनुष्य मूल्यहीन नहीं था, मैं हर मनुष्य से इस आशा के साथ मिलता था कि उसके अस्तित्व में अवश्य कोई ना कोई अर्थ छिपा होगा, जो एक ना एक दिन प्रकट हो जाएगा।

मैंने उसे ऐसे अजीब आदमियों के साथ घूमते देखा है की हैरत होती थी मंटो बर्दाश्त कैसे करता है ? लेकिन सादत हसन मंटो बोर होना जानता ही नहीं था, उनके लिए तो हर मनुष्य जीवन और मानव प्रकृति का मूर्त रूप है , और हर व्यक्ति दिलचस्प है। अच्छे-बुरे, बुद्धिमान–मूर्ख, सभ्य-असभ्य के प्रश्नों के उत्तर देने की आदत मंटो में बिलकुल नही थी, उनमें तो इंसानों को कुबूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था।

Writer Saadat Hasan Manto

इस विवरण से समझा जा सकता है कि मंटो कैसे उन किरदारों को अपने आप सौ अफसानों में केंद्रीय भूमिका लाने में कामयाब हो पाये, जो जिंदगी के सारे हास्य में रखते मंटो पर, फ्रांसीसी प्रकृति यथार्थवादी का प्रभाव है। मिनटों में गहरी राजनीति का अंतर्दृष्टि है। उनकी कहानियों में राष्ट्र आंदोलन के ऐसे जीवन चित्रण है, जो आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। मंटो की कहानियां विभाजन की त्रासदी पर है, जिसमें स्पष्ट पॉलिटिकल टोन है। इस दृष्टि से मंटो अपने समय से काफी आगे नजर आते हैं।

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Saadat Hasan Manto उर्दू भाषा के सबसे विवादित साहित्यकार

मंटो (Writer Saadat Hasan Manto) के समग्र साहित्य का संकलन करने और उनकी कई गुमशुदा रचनाओं को ढूंढ निकालने वाले ने सआदत हसन “मंटो दस्तावेज-1” में लिखा है ‘इस सृष्टि में अंधेरे और उजाले की लड़ाई कितने युगों से जारी है, मंटो ने इस लड़ाई का दृश्य उन आदमियों के कुरुक्षेत्र में भी देखा, जो अंधेरे के वासी थे। हमारे परंपरागत और नैतिक मूल्यों के टिमटिमाते हुए दिए, जिन्होंने अंधे कानून को जन्म दिया था।  उस अंधेरी दुनिया तक उन दिनों की रोशनी पहुंचने में असमर्थ थी। शायद इसीलिए मंटो उर्दू भाषा के सबसे विवादित साहित्यकार है, जिसे सबसे गलत समझा गया।

कानून अंधे थे मगर आंखें जिनसे फिरंगी हुकुमत  या खुदा की बस्ती के तथाकथित बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नैतिक उत्तरदायित्व की झूठी और पाखंड पूर्ण धारणा का झंडा ऊंचा करने वाले कथा साहित्य पत्रिकाओं के संपादकों के चेहरे सजे हुए थे। क्या वह आंखें भी अंधी थी और वह साहित्य समालोचक नैतिकता के वह प्रचारक जिन्होंने साहित्य को अपने विद्वेष के प्रकाशन का एक-एक आसानी से उपलब्ध माध्यम समझ रखा था और जो लकड़ी की तलवारों से मंटो का सर कलम करने की धुन में मगन रहे।

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आखिर में क्या देख रहे थे? यह सवाल हमारा नहीं और ना ही नवयुग के सांस्कृतिक मूल्यों का है। यह सवाल मंटो की उन कहानियों के चरित्र “काली सलवार” की सुल्तान, खुदा बख्श, शंकर, मुख्तार, “दुआ के मसूद और कुलसुम” , “रणधीर और बेनाम लकड़ी”, “ठंडा गोश्त” के कुलवंत कौर , सकीना और सिराजुद्दीन, मियां साहब, इन सबका है।  हर सवाल का रुख अदालत में इंसाफ की कुर्सी पर बैठे हुए इंसान की तरफ नहीं जिन्होंने मंटो को कटघरे में खड़ा किया, बल्कि उन सामाजिक विदेशों की तरह है जो सच के अस्तित्व से इनकार करने के आदी थे।

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