दर्द भरी शायरी : अपने हाथों की लकीरों से मिटा दूं तुझको

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अपने हाथों की लकीरों से मिटा दूं तुझको
कैसे मुमकिन है की मैं ऐसे दगा दूं तुझको
सोचता हूं मैं किसी तरह भुला दू तुझको
अपनी यादों से किसी रोज मिटा दूं तुझको।

तू ना मिल पाये मुझे ऐसी दुआ दूं तूझको
हौसला होता नहीं दाग-ए-वफा दूं तुझको,
मेरे दामन में अंधेरो के शिवा कुछ भी नहीं
ये किसी रोज, बता दूं तुझको।

ऐतबार-ए-दिल-ए-आवारा नहीं हैं मुझको
इसकी धड़कन में भला कैसे बसा दूं तुझको
आग सी लगती है सीने में शब-ओ-रोज खालिश
ये ना हो खुद भी जलूं और जला दू तुझको।।


मुझसे बाग बहारों ने रो कर कहा
तेरी किस्मत बहारों के काबिल नहीं
तेरी दुनिया है आंखो में डूबी हुई
तेरी आंखे नजरों के काबिल नहीं।

मेरी कश्ती को तुफां ने बोसी दिया
बोली मौज-ए-तलातुम मुझे देख कर
तेरी तकदीर में हैं भंवर ही भंवर
तेरी कश्ती किनारों के काबिल नहीं।

उसने महफिल से मुझको उठाकर कहा
मेरा पीछा खुदा के लिए छोड़ दो,
मेरी महफिल में फिर ना आना कभी
ये मुहब्बत के मारों के काबिल नहीं।।