ग़ज़ल : ए दोस्त वो सेहरा भी मुझ को देखने दो, अब इम्तेहां…

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ए दोस्त वो सेहरा भी मुझ को देखने दो
अब इम्तेहां का नतीजा भी मुझ को देखने दो।।

क्या आईने पे तुम्हारा ही अख्तियार सही
कभी कभी मेरा चेहरे भी मुझ को देखने दो।।

तय वो मंजिल मुझ को करना है
सो अपनी आंख से रस्ता भी मुझ को देखने दो।।

मेरे ही नाम से रोशन हेन बाम-व-दार जिस के
अब उस मकान का नक्शा भी मुझ को देखने दो।।

शरीक रंज सफर तुम जरूर हो लेकिन
कोई तो ख्वाब अकेला भी मुझ को देखने दो।।