भविष्य में रोजी-रोटी जुटाने में अहम भूमिका निभाएगा कंदमूल

Kand mool ka mahatva
Kand mool ka mahatva भविष्य में रोजी-रोटी जुटाने में अहम भूमिका निभाएगा कंदमूल

मानव सभ्यता के विकास शुरूआती दौर में कंदमूलो का बहुत महत्व (Kand mool ka mahatva) रहा है, क्योंकि आदिमानव अपना पेट भरने के लिए कंदमूलो का प्रयोग किया करता था। हमारे पूर्वजों ने इनका भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन अब आदिवासियों ने भी इन्हें भुला दिया है। माना जा रहा है कि आने वाले समय में धरती पर पानी इतना कम बचेगा कि गेहूं, धान जैसी फसलें उगाना इंसान की बस की बात नहीं रह जाएगी , तब क्या होगा?

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वैज्ञानिकों का मानना है कि तब मानव को ऐसे अनाज और खाद्य की और रुख मोड़ना पड़ेगा जिनमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और ऊर्जा की मात्रा पर्याप्त हो, साथ ही यह बिना पानी या कम पानी के भी उगाये जा सके। वास्तव में यह इशारा अब प्रचलन में नहीं रहे मोटे अनाज और कंदमूलो की ओर ही है, इन्हें फ्यूचर फूड यानी भविष्य के खाद्य कहा जा सकता है, और कहा जा रहा है कि हमें इनकी ओर लौटना शुरू कर देना चाहिए। झारखंड के पहाड़ी आदिवासियों ने समय रहते इसकी पहल शुरू कर दी है।

यह बता रहे हैं लगभग 200 कंदमूल की प्रजातियां (Kand mool ki prajatiyan)

Kand mool ka mahatva

गोड्डा नामक स्थान के पहाड़ी आदिवासी परिवारों ने लगभग विलुप्त हो चुके दो सौ कन्दमूलो को खोज निकाला है, अब वह इनके संरक्षण में जुट गए हैं। यह प्रयास इन आदिवासियों को रोजी-रोटी भी मुहैया करा रहा है। इसकी प्रेरणा इन्हें एक सुशिक्षित युवक सौमिक बनर्जी ने दी। कोलकाता निवासी सौमिक बनर्जी ने उन्हें कंद मूल के महत्व को ( Kand mool ka mahatva) को समझाया कि इन कन्दमूलो का सेवन पूर्वज आदिवासियों ने लंबे समय तक किया और आत्मनिर्भर रहे।

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आज गेहूं, धान खरीदने के लिए आदिवासियों को संघर्ष करना पड़ रहा है, जबकि यह उनका मुख्य आहार कभी नहीं थे। सौमिक की प्रेरणा से पहाड़ी परिवारों ने संताल पहाड़ पर कंदमूल की खोज शुरू कर दी, अब तक करीब 200 कंदमूल खोज चुके हैं, और इनका संरक्षण कर रहे हैं। सौमिक ने एमएससी करने के बाद भारतीय वन प्रबंधन संस्थान से डिग्री हासिल की।

Kand mool ka mahatva

2001 में नौकरी शुरू की लेकिन 2009 में नौकरी छोड़ कर यहां चले आए, तब से पहाड़ी परिवारों के सुख दुख के साथी बन गये। वह आदिवासियों के साथ मिलकर विलुप्त हो रहे कन्दमूलो की पहचान कर रहे हैं और उन्हें संरक्षित कर रहे हैं। इससे आदिवासियों का पेट तो भर ही रहा है, साथ में भविष्य की आने वाली जरूरतों को भी पूरा किया जा सकेगा। सौमिक बनर्जी की यह पहल अनाज के अकाल में उपयुक्त सिद्ध होगी।

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