लोकतांत्रिक सपनों के लिए “वासुदेव कुटुंबकम” की पहल Vasudeva kutumbakam
Vasudeva kutumbakam आज के युग में उभरे सर्वहितवाद और लोकतंत्र के विभिन्न रूप दक्षिण एशिया के लोगों के लिए लंबे समय से बुनियादी मूल्य रहे हैं। औपनिवेशिक शासन से पहले ही हमारी संस्कृति राजनीतिक व्यवस्था में नीचे से लेकर ऊपर तक भागीदारी वाली शासन प्रणाली थी। सभी स्तरों पर राजनीतिक सत्ता का बंटवारा था और हमारी संस्कृति तो बहुलतावादी थी ही।
छुआछूत जैसी बुराई या जाति व्यवस्था के सामुदायिक पक्ष का केवल ऊंच-नीच तक पतित हो जाने जैसी नकारात्मक चीजें भी हमारे यहां रहे हैं, लेकिन इन गलतियों और विफलताओं के साथ ही अनंत काल से “वसुदेव कुटुंबकम” की भावना भी हमारी सांस्कृतिक मूल्य व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा रही है। इसी के चलते हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता शक्ति का स्रोत होने के साथ “अनेकता में एकता” वाली पहचान परिभाषित करने का स्रोत भी रही हैं।
जरा इसे भी पढ़ें : गांधीवादी यात्रा बनाम रेलगाड़ी व साइबर यात्रा
निसंदेह बीच-बीच में वैचारिक पहचान में एकरूपता लाने की कोशिश वाले दौर भी चले हैं, लेकिन जल्दी ही बहुलतावादी दृष्टिकोण वापस प्रभावी हो गया। इस विश्वदृष्टि का बुनियादी सिद्धांत है कि कोई भी संप्रदाय धर्म, वैचारिक समूह, वर्ग, सामाजिक, राजनीतिक ढांचा, शासन या चर्चा सत्य के ऊपर एकाधिकार का दावा नहीं कर सकता, मनुष्य का हर सत्य अधूरा एकांगी है।
आज अंधकार की ओर ले जाने वाली ताकतें कौन है?
इतिहास जब भी ताकतवर करवट लेता है, तो वह नयी युग की शुरुआत कर सकता है, या अंधकार युग में भी धकेल सकता है। आज अंधकार की ओर ले जाने वाली ताकतें कौन है? मीडिया और निहित स्वार्थों के धन पर आधारित, इंटरनेट के जरिए उपभोक्ता के स्वर्ग को धरती पर उतारने का वादा किया जा रहा है, इसमें आर्थिक समानता पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता, सांस्कृतिक बहुलवाद या दबे कुचले लोगों के स्वाभिमान की बातें एकदम ही भुला दी गई हैं।
पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण के प्रति एक अजीब किस्म की बाढ़ दिखाई देती है। व्यक्ति स्वतंत्रता की बातें करते हुए मितव्यता के महत्व समाज में सबके भले की बातें करता है। प्राकृतिक और अन्य संसाधनों पर आने वाली पीढ़ियों के हक तथा दबे कुचले समुदायों के हितों का ध्यान रखने की बातें आज बाबा आदम के जमाने की चीजें मानी जाती हैं, इससे मानव समाज में बिखराव और एक अलग तरह का ध्रुवीकरण हो रहा है। इस पर पर इस प्रतिक्रिया और सांस्कृतिक पहचान की स्वायत्तता जातीय पहचान या सामाजिक स्वाभिमान के प्रमाणिक आग्रहों के बीच फर्क करना जरूरी है।