डियर तैमूर हेटर्स (तैमूर से नफरत करने वालो)

फुजैल आमिर (फैज)
सहारनपुर। जब अप्रैल 1398 में तैमूर लंग समरकंद से भारत को जीतने निकला। उस समय दिल्ली पर सुल्तान महमूद बिन तुगलक (मुसलमानों) का शासक था। भारत के तरफ बढ़ते हुए तैमूर दिसंबर में पानीपत पहुंचा। तब तैमूर व सुल्तान दोनो ही मुस्लिम थे और 13 दिसंबर को पानीपत में दो मुसलमानों की लड़ाई हुई। दोनों इस्लाम के फॉलोवर थे, दिल्ली का सुल्तान 40 हजार पैदल सिपाहियों और 10 हजार घुड़सवारों के साथ निकल पड़ा। तो सुल्तान क्यों निकला? देश बचाने के लिए। किसके लिए निकला? जनता के लिए। जनता कौन? हिंदू और मुसलमान।
यदि उस समय भी संघियों की तरह सुल्तान की विचारधारा होती तो सुल्तान कहता, अरे अपना मियाँ भाई है तैमूर, मिल कर काटते हैं हिंदुओं को, आओ भाई गले लगो। लेकिन सुल्तान तो ठहरा सुल्तान, उसे हिंदू-मुसलमान से क्या मतलब? लड़ा वह तैमूर से, और तैमूर संघी होता तो क्या करता? वह कहता यार दिल्ली में तो अपने मुसलमान का राज है, क्या मतलब वहां हमला करने का? मिल बैठ कर राज चलाते हैं। पर उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि तैमूर आरएसएस की शाखा में नहीं जाता था, यदि जा रहा होता शाखा में तो धर्म देख कर हर मामले पर आगे बढ़ा करता। चीजों को तय किया करता। राजाओं का काम होता था। युद्ध कर के बिना जाति-धर्म देखे मारने का जैसे अशोक का था, जैसे अकबर का था। सभ्यताओं के मूल में संघर्ष पाया जाता है।
अगर हम गलत या सही धर्म के आधार पर करेंगे तो घाटे में रहेंगे, क्योंकि झूठ अधिक देर तक ठहरता नहीं है। आपको सुल्तान महमूद बिन तुगलक से भी उतनी ही नफरत है जितनी की तैमूर से। आपको धर्म देखना होता है जहां भी मुसलमान नाम दिखता है। आपको तो यह भी नहीं पता की बाबर ने पहली गर्दन जिसकी उड़ाई वह इब्राहिम लोधी जो मुस्लिम था। आप बाबर को राजा के बजाए मौलवी बना देते हैं, और फिर हर मुसलमान को उस मौलवी का फॉलोवर।
शासक थे सब, शासन करते थे। आज की तरह आरएसएस की शाखा में जाकर कथित हिंदू राष्ट्र बनाने की कसम नहीं खाते थे। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों की तस्वीरें संघ के गणवेश में मिल जाएंगी। मोहन भागवत क्लास लेते दिख जाएंगे। मुझे मंदिर में जाने और टीका लगाने से आपत्ति नहीं है। आरएसएस को हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाला नहीं मानता। उनकी विचारधारा को देश की विचारधारा नहीं मानता। भगवा धोती पर खाकी पैंट का असर नहीं पड़ने दूंगा, लड़ूंगा। असल में तैमूर के नाम पर जिन्हें आपत्ति हो रही है वे नफरत न सिर्फ तैमूर या तुगलक से करते हैं बल्कि उनकी नफरत देश की अखंडता में एकता से है। वे मुसलमानों के अस्तित्व से घबराते हैं। डरपोक लोग हैं, नाम से डरते हैं।