सियाराम पांडेय शांत
उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के मतदान के एक दिन पहले ही बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने अपना स्टैंड स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं को खुला संदेश दिया है कि वह किसी भी कीमत पर मुस्लिम मतदाताओं का सिर झुकने नहीं देंगी। चुनाव बाद सरकार बनाने में न भाजपा का समर्थन लेंगी और न देंगी। सवाल यह है कि दूसरे चरण के चुनाव पूर्व मायावती को इस तरह की घोषणा क्यों करनी पड़ी? क्या इसके लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव का वह बयान जिम्मेवार है, जिसमें उन्होंने यह जानना चाहा था कि क्या मायावती दावा कर सक्ती हैं कि वे चुनाव बाद भाजपा के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार नहीं बनाएंगी। उन्होंने मायावती का अवसरवादी अतीत भी बताया था और मुसलमानों को यह भी संदेश दिया था कि मायावती भाजपाइयों को राखी भी बांधती रही हैं और गुजरात में उन्होंने नरेंद्र मोदी के पक्ष में प्रचार भी किया था। क्या मुसलमान मायावती द्वारा खुद को गद्दार कहे जाने का दंश सहज ही भूल जाएंगे।
भाजपा से मिलकर मायावती के सरकार बनाने का तो अखिलेश ने जिक्र किया लेकिन समाजवादियों के सहयोग से भी उनकी सरकार बनी थी, यह बताना कदाचित वे भूल गए और अगर ऐसा नहीं था तो अखिलेश यादव जान-बूझकर यह बताने-जताने की कोशिश कर रहे हैं कि बसपा और भाजपा के बीच संघावृत्ति है। इसके पीछे उनकी रणनीति ही है क्योंकि जिस तरह से कुछ मुस्लिम धर्म गुरुओं ने बसपा के समर्थन की अपील की है, उसने सपा के हाथ से तोते उड़ा दिए हैं। पहली बात तो यह कि सपा और बसपा दोनों ही अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनने की बात कर रही हैं। ऐसे में भाजपा से तालमेल का सवाल कहां से पैदा हो गया? मायावती भी अखिलेश सरकार पर भाजपा से मिले होने के आरोप लगाती रही हैं। अब अखिलेश यादव ने उन्हीं के आरोप ज्यों के त्यों उन पर चिपका दिए हैं। ऐसे में मायावती को लग रहा है कि अगर मुसलमान सपा और कांग्रेस गठबंधन के साथ चला गया तो उनका क्या होगा? दलित मतदाताओं का एक बड़ा तबका पहले ही मायावती की नीतियों से परेशान है।
2007 में टिकट वितरण में मायावती ने जिस तरह सवर्णों और पिछड़ों के लिए दलितों को जोर का झटका दिया था और अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने दलितों के हित को बहुत तरजीह नहीं दी, उससे दलित उनसे बिदका हुआ है। 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में दलित मतदाताओं ने उन्हें अपनी हैसियत भी बताई। दूध की जली मायावती ने इस बार टिकट वितरण में भले ही दलितों और मुसलमानों का पलड़ा बराबर रखा लेकिन दलितों को लग रहा है कि कहीं मुसलमानों को वरीयता देने के चक्कर में मायावती उन्हें दूसरे पायदान पर न खड़ी कर दें। वहीं मुसलमानों को यह लग रहा है कि जिन ब्राह्मणों के बल पर मायावती ने 2007 की चुनावी जंग पफतह की थी, जब वे उनकी नहीं हुईं तो मुसलमानों की क्या होंगी? दूसरे चरण में 11 जिलों की जिन 67 सीटों पर मतदान हो रहा है, उनमें मुसलमानों की भूमिका अहम है। 36 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता इन 11 जिलों में सियासी समीकरण बनाने और बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं। भले ही मायावती को छोटे मोटे करीब एक दर्जन मुस्लिम धर्मगुरुओं का साथ मिल चुका है और उन्होंने समाजवादी पार्टी के 56 उम्मीदवारों के मुकाबले सूबे में 99 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिया है लेकिन मुस्लिमों का विश्वास जीत पाने में वे अभी तक विपफल रही हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि मुस्लिम विकल्प के तौर पर ही बसपा का समर्थन करते हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों में 6 जिले मुस्लिम बहुल हैं। इसमें से रामपुर में 51 फीसदी, मुरादाबाद में 47, बिजनौर में 43, सहारनपुर में 42, अमरोहा में 41 और बरेली में 35 फीसदी मुसलमान हैं। यही वजह है कि यहां बसपा ने 26, सपा-कांग्रेस गठबंधन ने 25 और रालोद ने 13 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। 13 सीटों पर सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार आमने-सामने हैं। यानी मुस्लिम वोटों की असली लड़ाई उन 13 सीटों पर हैं,जहां सपा-बसपा दोनों ने ही मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं। भाजपा को कोशिश यह होगी कि मुस्लिम मतों का विभाजन इन दोनों दलों के बीच हो जाए। अगर ऐसा होता है तो इससे वह फायदे में रहेगी। इसमें संदेह नहीं कि दूसरे चरण में बरेलवी मुस्लिम मतदाताओं की बहुत बड़ी तादाद है। सहारनपुर में अगर देवबंदियों का वर्चस्व है तो शेष 10 जिलों में बरेलवी मुसलमान बड़ी संख्या में हैं। सिपर्फ बरेली में कुल 9 सीटें हैं। पूरे जिले में मुस्लिमों की आबादी 35 प्रतिशत है। बरेली में हजरत रजा खां की मजार की ओर से कहा गया है कि इस बार बरेलवी मुस्लिम पार्टी न देखें, अच्छे उम्मीदवार का चयन करें। दरगाह आला हजरत के प्रमुख मौलाना मन्नान रजा खां लोगों से बिहार की तर्ज पर मुस्लिम और हिंदुओं से एकजुट होने को कहा है।
वहीं दरगाह प्रमुख के भतीजे तौकीर रजा ने अपनी अलग पार्टी इत्तेहाद ए मिल्लत बना ली है। वे अपने उम्मीदवारों के लिए वोट मांग रहे हैं। शाही इमाम और अंसार रजा के साथ ही आल इंडिया तंजीम अहले सुन्नत और आल इण्डिया इम्माए मसाजिद एसोसिएशन ने भी आल इण्डिया उलेमा एंड मशाईक बोर्ड के समर्थन में बसपा को वोट देने की अपील कर रखी है। दारुल उलूम देवबंद यूनिवर्सिटी के विद्वान समाजवादी पार्टी को वोट करने की बात कह रहे हैं। देवबंद में बसपा ने अली को टिकट दिया है। समाजवादी पार्टी ने माविया अली को उम्मीदवार बनाया है, वहीं भाजपा से ब्रजेश मैदान में हैं। देवबंद विधानसभा सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। पिछली बार भी कांग्रेस की माविया अली ने उपचुनाव में समाजवादी पार्टी की मीना सिंह को हराया था। इस बार माविया अली सपा के टिकट से मैदान में हैं। मोटे तौर पर देवबंदी बहुल इलाका सिपर्फ सहारनपुर है, जहां करीब 45 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव में इन 67 सीटों में सबसे ज्यादा 34 सीटें समाजवादी पार्टी ने जीती थी। बहुजन समाज पार्टी 18 सीटें, भारतीय जनता पार्टी की 10 जबकि कांग्रेस 3 और अन्य के खाते में 1 सीट गई थी। चुनाव में मुस्लिम मतों पर अब मायावती का वैसे ही जोर है, जैसे झगड़े से पहले मुलायम का हुआ करता था। समाजवादी गठबंधन के बाद कांग्रेस की भी निश्चित तौर पर कुछ उम्मीद बंधी है। मैदान में तो असदुद्दीन ओवैसी भी हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में उनकी स्थिति वोटकटवा से ज्यादा होगी, इसमें संदेह ही है।
अखिलेश के 300 पार के पीछे भी यही संदेश देने की कोशिश है। अखिलेश कह रहे हैं कि कांग्रेस का हाथ साइकिल को मिल जाने के बाद सीटों की संख्या 300 हो जाएगी। मुजफ्फरनगर के दंगे और दादरी की घटना अखिलेश सरकार के दौरान हुए थे। मुस्लिम समुदाय को भी लगता है कि उन्हें मुआवजे की रकम तो मिली लेकिन जिस इंसाफ की उम्मीद उन्हें थी, वह आज तक नहीं मिला। अखिलेश यादव को उनके पिता मुलायम सिंह ही मुस्लिम विरोधी बता चुके हैं। मुलायम सिंह यादव की तरह अखिलेश यादव कभी भी कारसेवकों पर गोली चलाने की बात नहीं करते। उनके घोषणा पत्र में भी अल्पसंख्यकों के लिए वैसे वादे नहीं हैं जैसे मुलायम सिंह करते रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सक्ती है कि अखिलेश सिपर्फ मुस्लिमों या यादवों की बात कर समाज के अन्य तबकों को नाराज नहीं करना चाहते लेकिन पांच साल तो उन्होंने यादव- मुस्लिम ही खेला है। असदुद्दीन ओवैसी और डा. अयूब अंसारी यूपी चुनाव में यूं तो बेहद सक्रिय हैं लेकिन वे मुस्लिमों के चयन के उस मानक पर खरे नहीं उतरते जहां तय है कि वोट उसी को देना है जो सरकार बना रहा हो।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पहले सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ भाजपा के मुकाबले की बात कह रहे थे लेकिन पहले चरण के मुकाबले के बाद उन्होंने यह कह दिया कि पहले दो चरणों का भाजपा का सीधा मुकाबला बसपा के साथ है। इसे भाजपा की चुनावी रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है। अगर सपा और बसपा मुसलमानों को जोड़ने के लिए एक दूसरे पर भाजपा से मिले होने का आरोप लगा रही हैं तो इसका मतलब उन्हें लग रहा है कि इस बार उनकी सरकार नहीं बन रही है। अभी तक मुसलमानों को वे भाजपा का भय दिखाती थीं लेकिन अब दोनों ही राजनीतिक पार्टियां उन्हें त्रिशंकु विधानसभा और तज्जन्य खतरे गिना रही हैं। ऐसे में लगता है कि मायावती का गणित श्मुसलमान पहले देखेगा भाई फिर सपाई श् शायद पफेल हो रहा है। मुसलमानों पर डोरे डालने के लिए उन्होंने अक्टूबर माह में आठ पेज की पुस्तिका छपवाई थी, लगता है, उनका उस पर भी प्रभावी यकीन नहीं रहा। मुख्तार अंसारी को पार्टी में लेकर उन्होंने साजिश के शिकार गरीबों का मसीहा होने की अपनी जो छवि बनाई थी, अखिलेश-राहुल के गठबंधन के बाद उनकी वह छवि धूमिल होती जा रही है।
अगर अखिलेश के घोषणापत्र में मुसलमानों के लिए कुछ खास नहीं था तो मायावती की चुनावी सभाओं से भी ऐसा कोई ठोस संकेत नहीं मिला है कि वे मुसलमानों के बुनियादी मसलों-प्रतिनिधित्व, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और वक्पफ संपत्तियों की लूट को लेकर बहुत गंभीर हैं। जिन मुसलमानों को उन्होंने टिकट दिया भी है वे सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले व्यापारी है या फिर ठेकेदार। साठ के दशक में चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के हाथ से पचास प्रतिशत मुस्लिम मत छीन लिए थे लेकिन उनके बेटे अजित सिंह उस सिलसिले को आगे नहीं बढ़ा पाए। राम मंदिर आंदोलन के दौरान मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिमों को लपका तो अब वही काम मायावती कर रही हैं, लेकिन भाजपा की सबका साथ-सबका विकास जैसी सोच किसी भी विपक्षी दल के पास नहीं है। दूसरे चरण में भी मुसलमान विकल्प तलाश रहा है और बरेलवी मुसलमानों ने अगर पार्टी की जगह उम्मीदवार को वरीयता दी तो इन दोनों ही दलों सपा और बसपा का खेल बिगड़ना तय है।