अब राजनीति का शुद्धिकरण हो

राजनाथ सिंह ‘सूर्य’
निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाले चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए जिस व्यवस्था को लागू करने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है, नोटबंदी के बाद कालेधन के प्रचलन को रोकने के लिए, वह सबसे प्रभावी कदम होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के समय से ही इस व्यवस्था को भ्रष्टता से मुक्त करने के लिए एक के बाद एक उपाय किये जाते रहे हैं लेकिन इन सभी प्रयासों के बावजूद भ्रष्टाचार में इजाफा होता गया है, कारण यह है कि धन के उपयोग की बढ़ती जा रही खपत को रोकने के उपाय सफल नहीं हो पा रहे हैं। डेढ़ वर्ष पूर्व स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे ने सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि मैंने अपने निर्वाचन का जो ब्यौरा दिया है वह लाखों में है लेकिन वास्तविक व्यय करोड़ों में हुआ है उनकी अभिव्यक्ति पर अलग अलग ढ़ंग से प्रतिक्रिया हुई लेकिन सभी जानते हैं कि उनके कथन में सच्चाई थी। निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को चंदे के प्राप्त धन को पारर्शी बनाने की आवश्यकता सार्वजनिक करने के उपरांत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कानपुर की रैली में न केवल उसका स्वागत किया बल्कि यह रहस्योद्घाटन भी किया कि संसद को शीतकालीन सत्र-जो होकर भी नहीं हुआ-के पूर्व सर्वदलीय बैठक में उन्होंने सभी दलों से दो विषय पर ंससद में चर्चा का आग्रह किया था।

पहला यह कि कालेधन का उपयोग रोकने के उपाय और दूसरे सभी चुनाव एक साथ कराने पर सहमति का प्रयास। संसद में क्या क्यों कैसे हुआ, उसमें असहमति का जैसा वीभत्स स्वरूप दिखाई पड़ी, उसमें तो संसद के अस्तित्व और उपादेयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। संसद के इस वीभत्स स्वरूप ने जनमानस को झकझोर दिया है और वह भी यह अनुभव करने लगा है मुखरित भी हो रहा हैै कि जितनी आवश्यकता नोटबंदी की है उससे कहीं अधिक आवश्यकता राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की पारदर्शिता की है। आखिर जब देश का प्रत्येक व्यक्ति नोटबंदी की प्रक्रिया में एक-एक पाई का हिसाब देने के लिए दुरूहता के बीच स्वाभिमान से खड़ा है तो फिर राजनीतिक दलों को चंदे का श्रोत न बताने की छूट क्यों ? जो ब्यौरा स्वयं राजनीतिक दलों ने ही दिया है उसके अनुसार सार्वदेशिक या क्षेत्रीय प्रभाव वाले दलों को अरबों रूपया ऐसा मिला है जिसका स्त्रोत बताने की बाध्यता से उन्हें ‘‘मुक्त’’ रखा गया है। जब प्रधानमंत्री देश को कैशलेस और डिजिटल मुद्रा की ओर ले जाने की पहल कर रहे हैं जिससे कालेधन रखने की संभावना क्षीण होती जाएगी, राजस्व में वृद्धि भी होगी, तो फिर राजनीतिक दल अपने चंदे की रकम के स्त्रोत को गोपनीयता से क्यों लाभान्वित रहना चाहते हैं।
निर्वाचन आयोग की पहल का प्रायः सभी दलों ने स्वागत किया है लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सरकार को पहला कदम उठाने की आड़ लेकर अपनी सोच को सार्वजनिक करने से परहेज भी किया है। अभी तक राजनीतिक दलों को बीस हजार रूपए तक पाने वाले चंदे का स्त्रोत बताने की आवश्यकता नहीं है। निर्वाचन आयोग चाहता है कि यह सीमा घटाकर दो हजार कर दिया जाय। इसके लिए संसद को वर्तमान कानून में संशोधन करना होगा। अब प्रश्न यह है कि क्या सरकार ऐसा कोई विधेयक लायेगी और इस बात की क्या गारंटी है कि नोटबंदी का स्वागत करते हुए विपक्षी दलों ने उसकी प्रक्रिया आदि को मुद्दा बनाकर जिस प्रकार का माहौल पैदा किया है उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी। नोटबंदी का आम आदमी कठिनाइयों के बावजूद समर्थन कर रहा है, लेकिन जिस प्रकार से जनसमर्थन न जुटा पाने के बावजूद अभिव्यक्ति की स्तरहीनता के साथ विपक्षी दल मुखरित है उससे संदेह होता है कि शायद बंदी की चोट सबसे ज्यादा उन्हें सहनी पड़ रही है। इस नोटबंदी की प्रक्रिया ने एक बात और स्पष्ट कर दिया है कि देश का आवाम जिस प्रकार से प्राकृतिक आपदा हो या युद्ध का समय अपने कष्टों की परवाह किए बिना देश पहले को सोचता है, यह भावना राजनीति करने वालों की ही नहीं सर्वाेच्च न्यायालय के निवृत्त हो रहे न्यायाधीश के ‘‘दंगा भड़कने के खतरे’’ की अभिव्यक्ति से अप्रभावित रहा। इस माहौल का एक कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईमानदारी से दायित्व निर्वाहन और जनहित के लिए समप्रित होने पर भरोसा है, वही राजनीति करने वालों पर नोटबंदी का सर्वाधिक प्रभाव पड़ने का आंकलन भी है। राजनीति में धनबल और बाहुबल के बढ़ने प्रभाव तथा राजनीतिक गतिविधि में नंगे पैर पैदल दाखिल होकर कुछ वर्षों में सम्पन्नता की प्रतिमूर्ति बनकर व्याप्त रूप में उभरते हुए लोगों के तरीके पर वह नोटबंदी का सबसे बड़ा प्रहार मान रहा है। इसलिए यदि विपक्षी दल नोटबंदी का प्रकारान्तर से विरोध कर अवाम को भटका नहीं सके तो राजनीतिक दलों को कालेधन से मालामाल हो रहे पर रोक लगने पर उसे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
निर्वाचन आयोग नख दंत विहीन होने के बावजूद शुचिता के लिए अनेक सफल कदम उठा चुका है। जहां यह आवश्यक है कि मानक का उल्लंघन करने वालों को चेतावनी देने से अधिक आयोग की शक्ति बढ़ाने के लिए संसद कानून बनाए वहीं कालेधन के प्रभाव से राजनीति ही नहीं समाज को भी मुक्ति दिलाने के लिए राजनीतिक दलों को मिलने वाली धनराशि की पाई-पाई सार्वजनिक होगा। राजनीतिक दलों को अघोषित स्त्रोत से धन प्राप्ति पर निर्भर न रहने का एक सुझाव देश के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी वर्षों से दे रहे हैं। प्राप्त मतों के प्रतिशत के आधार पर देश और राज्य के बजट में उनके लिए धन का प्रावधान। राजनीतिक दल जहां-जहां सत्ता में हैं वहां अब बजट से ही धन जुटाने की कलुशित प्रक्रिया चल पड़ी है। उत्तर प्रदेश इसका ज्वलंत उदाहरण है। जिनके पास टुटही साइकिल भी नहीं थी, घर पर ठीक से छत नहीं था, वे लाखों की कार का काफिला लेकर चलते हैं, भूमि भवन की आपार सम्पदा से सम्पन्न हो गए हैं। यदि उनके द्वारा एक नामांकन से दूसरे नामांकन के समय दिए गए सम्पत्ति का ब्यौरा आयकर विभाग की समीक्षा में लाया जाय तो आधे से अधिक बेनामी सम्पत्ति के भी मालिक हैं इसका भी खुलासा हो जाएगा।

प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के बाद बेनामी सम्पत्ति पर धावा बोलने का संकल्प व्यक्त किया है, लेकिन यदि वे नोटबंदी के समय प्रक्रिया में शामिल तंत्र की जिस संलिप्तता का खुलासा हुआ है, उसको संज्ञान में रखकर तंत्र को नियंत्रित करने की सावधानी नहीं करती तो नोटबंदी से कहीं ज्यादा घपलों का संकट झेलना पड़ सकता है। नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय सरकारी तंत्र को उत्तर प्रदेश के संचालक राजनीतिक लोगों को घपलों-घोटालों और बैंक की लगातार चल रही प्रक्रिया से जिस प्रकार मुक्त सरकार ढाई वर्ष तक शासन चलाया है उससे देश को यह भरोसा है कि राजनीति को कालेधन से मुक्त करने के उपायों के निर्वाचन आयोग के सुझाव पर भी अमल करेंगे। यदि किसी को यह लगता है कि इसके लिए राजनीतिक दलों में सहमति बन सकेगी तो उसे निराश होना पड़ेगा। इस समय किनारे पर लग चुके या उसी दिशा में बढ़ रहे दलों के बीच ‘‘विपक्ष की एकता’’ के नाम पर सभी दलों को एकजुट होकर नरेंद्र मोदी विरोध की कमान थामने के लिए जिस अंतरनिहित भावना से यह सब किया जा रहा है, वह अपने आप ही ध्वस्त होता रहेगा। प्रधानमंत्री जी यदि आज राजनीति को निहित स्वार्थी घेरेबंदी से निकालना चाहते हैं तो नोटबंदी के समान है, इस दिशा में पहल करने का सबसे उपयुक्त समय यही है।