देशहित में नहीं है हंगामे की राजनीति

जयकृष्ण गौड़
अमेरिका में मानवाधिकार संघर्ष के प्रमुख मार्टिन लूथर किंग ने कहा था कि मनुष्य की सही पहचान सुख-सुविधाओं के क्षणों में उसके व्यवहार से नहीं बल्कि चुनौती और विवाद के क्षणों में उसके आचरण से होती है। यही आंकलन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व और उनके द्वारा किये गये क्रांतिकारी बदलाव से होती है। नोटबंदी के निर्णय के बाद शीतकालीन सत्र में लगातार हंगामा हुआ। पक्ष विपक्ष दोनों ही आरोप लगाते हुए एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करते रहे। कहा जाता है कि पंद्रह साल में सबसे अधिक बर्फ संसद पर जमी। हंगामा- चिल्लाने का मंच संसद हो गई। 101 घंटे बर्बाद हुए लोकसभा के और 101 घंटे राज्यसभा के बेकार चले गए। बताया जाता है कि जनता के करोड़ से अधिक रूपये संसद के हंगामे में स्वाहा हो गये। जनता के धन की बर्बादी की कौन परवाह करता है जनप्रतिनिधि तो जनधन की बर्बादी को अपना अधिकार मानने लगे हैं।

प्रधानमंत्री श्री मोदी की संसद में उपस्थित होने की मांग को लेकर विपक्ष हंगामा करता रहा। कांग्रेस के राहुल गांधी जो कांग्रेस की नीतियों एवं सिद्धान्त के प्रतीक माने जाते हैं, उन्होंने यह धमकी भी दी कि यदि वे संसद में बोले तो भूकम्प आ जायेगा। जनता आतुरता से निहार रही है कि राहुलजी के मुँह से कौन सा एटम बम चलेगा, हो सकता है कि उनकी बातों का बम मन में फुस्स हो गया हो। राहुल की बातों को चाहे कांग्रेसी अपना दिशा बोध मानें लेकिन जनता उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेती। राजनैतिक मंच का उन्हें जोकर के अलावा कुछ नहीं मानती। हमारे यहां कहावत है कि घर पफूंक तमाशा देखे। संसद के मूल्यों की होली जलाने का काम सांसद ही करने लगे तो जनता को अधिकार है कि वे लोकतांत्रिक व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग संसद की प्रासंगिकता पर ही सवाल करे। यही कारण है कि तृणमूल कांग्रेस के सांसद को व्यत्तिफगत चर्चा में वरिष्ठ सांसद और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को हंगामे से खिन्न और दुःखी होकर कहना पड़ा कि इच्छा होती है कि संसद से इस्तीपफा दे दूं। संसद में लगातार हंगामे के कौन दोषी हंै इसकी समीक्षा होती रहेगी? होना तो यह चाहिए हंगामे बाजनेताओं से जनता यह पूछे की क्या तुम संसद के लायक हो?

चाहे लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन हो या राज्यसभा अध्यक्ष हमीद अंसारी हों, वे हंगामे से दुःखी होकर आत्मचिंतन की सलाह दे रहे हैं, लेकिन उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता तो हंगामा और आसंदी के आसपास हाट बाजार का दृश्य दिखाई नहीं देता। अब सवाल है कि हंगामे से न प्रधानमंत्री को नोटबंदी के बारे में अपनी बात कहने का अवसर मिला और न कांग्रेस के प्रमुख राहुल गांधी भूकम्प लाने की बात का बम संसद में फोड़ सके। इन दिनों न केवल डिजिटल क्रांति का समय है लेकिन सूचना क्रांति की लहर हर नागरिक के कान से टकरा रही है। मीडिया भी इलेक्ट्राॅनिक, प्रिंट और ईमेल, फेसबुक आदि कई स्वरूप में लोगों को समाचार परोस रहा है। उसे यह चिंता नहीं है कि वह जो परोसता है वह स्वास्थ्य को ठीक रखेगा या रोगी बना देगा। उसे केवल परोसने का जुनून है। ऐसे समय कोई बात गोपनीय नहीं रह सकती। सुरक्षा संबंधी गोपनीय बातें भी उजागर हो जाती हैं। संसद में किसका मुंह जुगाली कर रहा, किसके हाथ पैर चल रहे और कौन चिल्लाता हुआ हंगामा कर रहा, सब बातें और आचरण जनता के सामने आ जाते हैं। इसीलिए शायद नेताओं के लिए संसद की बजाय मीडिया अधिक महत्व का हो गया है। जो बातें या बहस संसद में होना चाहिए, वह मीडिया के माध्यम से हो रही है। संसद हंगामे के लिए और मीडिया चर्चा के लिए, यह स्थिति लोकतांत्रिक आचरण के अनुकूल है या नहीं? इसके उत्तर की तलाश तो जनता को ही करना होगी।

प्रधानमंत्री जो बात संसद में रखना चाहते थे, उन्हें हंगामे के कारण नोटबंदी के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर संसद में नहीं मिला। उन्होंने भाजपा संसदीय दल की बैठक में कांग्रेस को करारा जवाब देते हुए कहा कि इंदिरा जी ने ûùझ्û में वांचू कमेटी की सिपफारिशों को लागू करने के बारे में तत्कालीन वित्तमंत्री चैहान से कहा था कि कांग्रेस को अगला चुनाव लडना है या नहीं। उस समय इंदिरा सरकार ने कालेधन के खिलापफ कारगर कदम उठाने का निर्णय इसलिए नहीं लिया कि उससे चुनाव जीतने में कठिनाई हो सकती है। इसी संदर्भ के साथ प्रधानमंत्री श्री मोदी ने कहा कि हमारे लिए दल से ऊपर देश है और उनके (कांग्रेस) के लिए देश के ऊपर चुनाव है। यह सवाल चिंतन का है कि राजनीति देश के लिए है या केवल चुनाव के लिए? वास्तविकता यह है कि कांग्रेस सहित अधिकांश छोटे-बड़े दल केवल जनता को भ्रमित कर चुनाव के लिए राजनीति करते हैं। वोट चाहे जातिवाद से मिले, चाहे साम्प्रदायिक जुनून को उभारकर वोट प्राप्त किये जाएं, चाहे अगड़े-पिछड़े दलितों के नाम पर वोट की झोली भरे, लेकिन किसी भी तरह वोट प्राप्त करने के हथकंडे अपनाये जाते है।

परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि घातक बुराइयों ने समाज में भेदभाव की लकीरे खींच दी है। इस प्रकार की राजनीति से समाज में कितना बिखराव होगा? इसके बारे में चिंतन नहीं होने से राजनीति देश का हित बजाय अहित ही कर रही है। इस प्रदूषण के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन राष्ट्रवादी विचार को ही व्यत्तफ करता है कि हम देश के लिए राजनीति करते हैं, दल के लिए नहीं। मोदी ने अपने संकल्प की भावी योजना को प्रस्तुत करते हुए यह भी कहा कि ûùøø में बेनामी संपत्ति का आप (कांग्रेस सरकार) कानून पास करते हो और इतने साल बीतने के बाद भी आप नोटिपफाई नहीं करते। पब्लिसिटी (प्रचार) कमाकर राजनीति करते हो। अब मैं कदम उठाऊंगा तो चिल्लाओगे कि हमने बेनानी संपत्ति का कानून पारित क्यों किया है? मोदी ने जल्दबाजी क्यों कर दी? इस बात के साथ श्री मोदी की उस बात के बारे में भी विचार करना होगा कि भ्रष्टाचार, कालेधन के खिलापफ मेरे दिमाग में और भी बातें चल रही हैं। पुराने पांच सौ-हजार की नोटबंदी के बाद अब कैशलेस व्यवहार का अभियान। इसके बाद बेनामी संपत्ति का कानून लागू करने से भाजपा को राजनैतिक लाभ होने की बजाय वे विरोधी हो सकते हैं जिन्होंने बेईमानी से संपत्ति अर्जित की है या जिनके पास बेनामी संपत्ति है।

इससे एक बड़ा व्यवसायी वर्ग श्री मोदी के खिलाफ हो सकता है। यदि वोट की लाभ हानि के गणित पर श्री मोदी का ध्यान केन्द्रित होता तो वे ऐसे निर्णय लेने से बचते। उनके लिए राष्ट्रहित सर्वाेपरि होने से उन्होंने नाराजी, समर्थन की परवाह किये बिना नोटबंदी का निर्णय लिया, अब बेनामी संपत्ति की बारी है। कांग्रेस सोनिया गांधी, राहुल गांधी एवं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में मार्च करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने पहुंचे। राहुल गांधी ने कहा कि पंजाब, उत्तरप्रदेश के किसान संकट में हैं, आत्महत्या की स्थिति पैदा हो रही है, इसलिए उनका कर्जा माफ किया जाय। वैसे सारे देश के किसानों की स्थिति बेहतर करने की मांग होती तो यह माना जाता कि कांग्रेस के शहजादे को सारे देश के किसानों की चिंता है, पंजाब, उत्तरप्रदेश के किसानों की दुर्दशा के पीछे उनकी वोट की राजनीति है। पंजाब, उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनाव में चार-पांच माह शेष है। राहुल चुनाव में किसान हितैषी होकर चुनावी सभाओं में बोलेंगे।

वे यह भी कहेंगे कि हमने प्रधानमंत्री से किसानों का कर्ज माफ करने की मांग की, लेकिन उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। राष्ट्रपति से मिलने में कांग्रेस का साथ बीएसपी, एनसीपी, एसपी और वामदलों ने नहीं दिया। राष्ट्रपति से मिलकर नोटबंदी की परेशानी को बताना, केवल औपचारिक विरोध के अलावा कुछ नहीं है। संसद का हंगामा, राहुल गांधी की भूकम्प लाने की बात और विपक्ष का विरोध प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प को न डिगा सकते न रोक सकते हैं। सबसे महत्व का सवाल यह है कि यदि देश की बजाय अपने दल या परिवार के लिए राजनीति है और इसमें राष्ट्र चिंतन के विपरीत विचार है तो उससे देशहित की बजाय हानि ही होगी, नये संकट भी पैदा होंगे। हुए भी है। राजधर्म को गांधीजी ने परिभाषित करते हुए कहा था कि धर्म के बिना राजनीति वेश्या के समान है। वर्तमान राजनीतिक स्थिति के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि राष्ट्र धर्म के बिना राजनीति की स्थिति वेश्या जैसी हो गई है। ऐसे प्रदूषण में श्री मोदी अपने संकल्प को कैसे पूरा करेंगे?