मैथिलीशरण के मानक में पास, आचार्य द्विवेदी से फेल

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गौरव अवस्थी

एक प्रसंग : मैथिलीशरण गुप्त जयंती (3 अगस्त 1886) विशेष

आज राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 139वीं जयंती है। 3 अगस्त 1886 को चिरगांव ( झांसी) में उनका जन्म हुआ। माना जाता है कि मैथिलीशरण गुप्त को ‘राष्ट्रकवि’ बनाने और खड़ी बोली हिंदी अपनाने में खड़ी बोली के परिमार्जक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान था। आचार्य द्विवेदी के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। दो-एक प्रसंग खटास के भी मिलते हैं लेकिन इन प्रसंगों से आचार्य द्विवेदी के प्रति उनके मन में आदर कभी कम नहीं हुआ।

आचार्य द्विवेदी और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के जन्म में 22 वर्ष का अंतर था। मैथिलीशरण गुप्त और सुमित्रानंदन पंत के जन्म में 14 वर्ष का आगा- पीछा था। आचार्य द्विवेदी के सम्मान में लिखे गए एक लेख में एक ऐसे प्रसंग का उल्लेख किया है जो हिंदी जगत लगभग भूल ही चुका होगा। यह प्रसंग बताता है कि सुमित्रानंदन पंत की जी पहली कविता ‘गिरजे का घंटा’ को मैथिलीशरण गुप्त ने अपने सहज स्वभाव के चलते ‘प्रशंसा’ के दो शब्द लिखकर लौटा दिया था उसे कविता को आचार्य द्विवेदी ने सरस्वती के लिए ‘अस्वीकृत’ कर दिया था।

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‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’

भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रशासन विभाग द्वारा रामेश्वर उपाध्याय श्रीमती चंद्रकला शफीक एवं यश देव सैनी के संपादन में अगस्त 1969 में प्रकाशित ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’ पुस्तक में सुमित्रानंदन पंत द्वारा लिखा यह प्रसंग पठनीय है-

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सुमित्रानंदन पंत

‘..वैसे तो मैं तुकबन्दी, अपने बड़े भाई के प्रभाव में आकर, टूटी-फूटी भाषा में 1911 में करने लगा था; पर सन् 1915-16 में जब अल्मोड़े के युवकों में हिन्दी के प्रति अनुराग की बाढ़ आई और हमारे ही घर से श्री श्यामचरण दत्त पंत तथा इलाचन्द्र जोशीजी के सम्पादन तथा देखरेख में ‘सुधाकर’ नामक हस्त-लिखित पत्रिका निकलने लगी तब मेरे साहित्य-प्रेम और विशेषतः काव्य-प्रेम में एक नवीन गति तथा प्रवाह आया ।

इन्हीं दिनों की एक घटना है कि हमारे घर के ऊपर अल्मोड़े में एक गिरजाघर था जहां से रविवार को अत्यन्त शांत मधुर स्वरों में प्रातःकाल के समय घंटे की ध्वनि पहाड़ की घाटी में गूंज उठती थी । उसी के मोहक स्वर से आकर्षित होकर मैंने तब ‘गिरजे का घंटा’ शीर्षक एक छोटी-सी कविता लिखी थी। मैं सम्भवतः तब आठवीं कक्षा में था।

वह कविता मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने उसे नीले रंग के रूलदार लैटर पेपर में उतारकर चिरगांव श्री गुप्तजी के पास भेज दिया । गुप्तजी की ख्याति तब ‘सरस्वती’ के माध्यम से एवं उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत भारती’ तथा ‘जयद्रथ वध’ आदि से देश भर में फैल चुकी थी। मेरी रचना के हाशिए में श्री गुप्तजी ने अपने सहज सौजन्य के कारण प्रशंसा के दो शब्द लिखकर उसे मेरे पास लौटा दिया।’

वे लिखते हैं-‘ गुप्तजी के आशीर्वाद से प्रोत्साहित होकर मैंने अपनी वह रचना सरस्वती में प्रकाशनार्थ आचार्य द्विवेदी जी के पास भेज दी। एक ही सप्ताह के भीतर द्विवेदोजी ने गुप्तजी के हस्ताक्षरों के नीचे बारीक अक्षरों में ‘अस्वीकृत म0 प्र0 द्वि0’ लिखकर वह कविता लौटा दी। आचार्य द्विवेदीजी के लौह व्यक्तित्व की यह पहली अमूर्त छाप थी जो मेरे किशोर मानस पर पड़ी थी। अ

ब सोचता हूँ, यह मेरा ही बाक-चापल्य था या अबोध दुःसाहस जो मैंने अपने अज्ञान की सीमाओं से अपरिचित होने के कारण बड़ों की श्रेणी में अपना नाम लिखाना चाहा था। ‘सरस्वती’ निःसंदेह तब हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ और उच्च कोटि की मासिक पत्रिका थी और गुप्तजी का सहज सुलभ प्रशंसापत्र प्राप्त कर लेने पर भी मेरी रचना तब निःसंदेह अत्यन्त अपरिपक्व रही होगी। उसका तब का रूप तो मुझे याद नहीं पर पीछे उसी भावना के आधार पर उससे मिलती-जुलती जो ‘घंटा’ शीर्षक कविता मैंने लिखी थी उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:-

नभ की उस नीली चुप्पी पर घंटा है एक टंगा सुंदर
कानों के भीतर लुक छिप कर घोंसला बनाते जिसके स्वर
……………………………………………………….इत्यादि’

काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 1933 में भेंट किए गए ‘द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ’ के लिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने दो कविताएं प्रकाशन के लिए भेजी। ‘लोरी’ शीर्षक कविता (पृष्ठ-93) और ‘अंत में’ शीर्षक कविता (517-पृष्ठ) पर प्रकाशित हुई। यह कविता आप भी पढ़ें-

अंत में..
क्षमा करो उनको भी राम !
उनके भी उद्धार-हेतु मैं,
करता हूँ प्रभु, तुम्हें प्रणाम ।

जो अपना चेतन खो बैठे,
अहंभाव का विष बो बैठे
जिनके मस्तक जड़ हो बैठे,
वे किस भाँति झुकें इस ठाम?
क्षमा करो उनको भी राम !

जान रहे जो रत्न अनल को,
सम थत्त मान रहे हैं जल को,
जलें न आज, न डूबे कल का,
नाथ, बचा लो उनको थाम ।
क्षमा करो उनको भी राम !

साधु गिनें जो अनुगत को ही,
जिससे मत न मिले, वह द्रोही;
मार्ने संशयमय जो मोही
स्वयं दक्षिणों को भी बाम !
क्षमा करो उनको भी राम !

सरल रूप में है छल जिनका,
बस, उपहास बड़ा बल जिनका,
कुटिल भाव ही कौशल जिनका,
पर-निंदा है जिनका काम।
क्षमा करो उनको भी राम !

जिनका सत्य नग्नता में है,
भाव विलास-मग्नता में है,
पौरुष नियम-भग्नता में है,
नहीं विनय का जिनमें नाम।
क्षमा करो उनको भी राम !

सब कुछ जिनके लिये यहीं है,
मरणोत्तर कुछ नहीं कहीं है,
जहाँ मुक्ति है मुक्ति वहीं है,
वे भी तो देखें वह धाम ।
क्षमा करो उनको भी राम !

उनका दंभ-दर्प तुम भूलो,
अपने दया-दोल पर फूलो,
सबके हौ, सब पर अनुकूलो,
बाम न हो हे लोक-ललाम !
क्षमा करो उनको भी राम !

यहो विनय है तुम सकरुण से
दोषी को बाँधो निज गुण से,
शुभ हो सबका परिणाम।
क्षमा करो उनको भी राम !

आज जयंती पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को शत-शत नमन

  • गौरव अवस्थी
    रायबरेली (उप्र)
    9415034340