भारत विभाजन के प्रयोग के असफल हो जाने के संकेत: डाॅ. कुलदीप

पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति क्या होनी चाहिए , यह प्रश्न भारत में सदा विवादास्पद रहा है । इतना निश्चित है कि यह नीति कभी स्पष्ट नहीं रही । लेकिन पाकिस्तान की भारत के प्रति क्या होनी चाहिए , इसको लेकर पाकिस्तान में कोई भ्रम नहीं रहा । पाकिस्तान शुरु से ही हिन्दुस्तान को अपना शत्रु मान कर चलता रहा है और शत्रु से जैसा व्यवहार करना चाहिए , वैसा करता भी रहा है । दरअसल ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान की स्थापना भारत का ही अंग भंग कर , उसे घेरे रखने के लिए की थी ।

पाकिस्तान निर्माण के समय एक मुख्य तर्क यह था कि बलोचों,पश्तूनों, इस्लाम में दीक्षित हो चुके पंजाबियों, सिन्धियों और बंगालियों की शेष भारत से इतनी ज्यादा सांस्कृतिक भिन्नता है कि इनका इक्कठे रहना संभव नहीं है । यह भी कहा जाने लगा कि मजहब परिवर्तन के बाद इन लोगों के मन में अपने उन भाईयों के प्रति , जिन्होंने मजहब परिवर्तन नहीं किया था , शत्रु भाव उत्पन्न हो गया था । यह अलग बात है कि इन बातों का प्रचार करने में अंग्रेज विद्वान प्रमुख थे और उनकी इस थ्योरी को खरीदने में जिन्ना और अन्य बड़े जमींदार व सामन्त प्रमुख थे । आदि सब से आगे थे । इसलिए यह सिद्धान्त प्रचारित किया गया कि यदि ये अलग अलग रहेंगे तो बिना एक दूसरे के प्रति शत्रुता भाव रखे प्रसन्नता पूर्वक रह सकेंगे । यह मजहब के आधार पर भारतीयों के विभाजन का एक नया प्रयोग था । चाहे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के षडड्ढन्त्र के जाल में पफँस कर ही सही, आखिर भारत ने मजहबी विभाजन के इस प्रयोग को स्वीकार किया था , इसलिए उसे सपफल होने का पूरा अवसर तो देना ही चाहिए , ऐसी भारत की शुरु से ही नीति रही है । यही कारण था कि एक समय नेहरु जम्मू कश्मीर राज्य के कुछ हिस्सों को भी पाकिस्तान का हिस्सा मानने को तैयार हो गए थे, क्योंकि उनको लगता था कि इस हिस्से में मुसलमान रहते हैं और वे भारत में रहने के पक्ष में नहीं हैं । आज पाकिस्तान के कब्जे में जो जम्मू कश्मीर का हिस्सा है, वह नेहरु की इसी सोच का परिणाम है । अटल बिहारी वाजपेयी ने तो पाकिस्तान के साथ सम्बंध सुधारने के अतिरिक्त प्रयास किए । लाल कृष्ण आडवाणी तो मीनारे पाकिस्तान में जाकर विजिटर पुस्तिका में पाकिस्तान के प्रति सद्भावना भी व्यक्त कर आए । मीनारे पाकिस्तान उस देश के अस्तित्व का प्रतीक माना जाता है । नरेन्द्र मोदी तो नवाज शरीपफ की नातिन की शादी में शरीक होने उसके घर तक गए । जो देश इस तर्क के आधार पर बनाया गया था कि विभाजन के बाद भारत के ये नागरिक अलग रह कर प्रसन्न व खुशहाल होंगे , उसका प्रयोग विपफल होने के स्पष्ट संकेत मिलने लगे । लेकिन पिछले सत्तर साल के अनुभव के आधार कहा जा सकता है कि यह प्रयोग पूरी तरह असपफल हो गया है ।

सामान्य जन के स्तर पर शायद दोनों देशों के लोगों में शत्रुता भाव उतना नहीं है लेकिन पाकिस्तान में हुक्मरानों के स्तर पर इस शत्रुता भाव को प्रयासपूर्वक निर्मित किया जाता है ताकि सेना और शासकों का जो नया सामन्तीं वर्ग बन चुका है , उनकी स्वार्थ साधना होती रहे । पाकिस्तान ने अपनी स्थापना के दो मास आठ दिन बाद ही भारत पर पहला हमला कर दिया था । उसमें उसने जम्मू कश्मीर प्रान्त के कुछ हिस्से पर कब्जा भी कर लिया था , जो अभी भी उसके कब्जे में है । उसके बाद 1965, 1971 और कारगिल युद्ध के उदाहरण पाकिस्तान की भारत नीति को स्पष्ट करते हैं । लेकिन भारत सरकार ने 1947 में पाकिस्तान द्वारा कब्जाए क्षेत्र को छुड़ाने के लिए कोई प्रयास किया हो , ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता । अलबत्ता उस कब्जाए क्षेत्र को धीरे धीरे भारत- पाक समस्या कहा जाने लगा और उसके समाधान के लिए 1948 में ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ से सहायता माँगनी शुरु कर दी थी । बीच बीच में निरन्तर यह बात भी चलती रही कि पाकिस्तान के कब्जे में जो भारतीय क्षेत्र है , वह उसी को देकर शान्ति खरीद ली जाए । लेकिन भारत के प्रति पाकिस्तान की नीति में एक निरन्तरता आज तक बनी हुई है । शत्रुता की निरन्तरता । 1971 के बाद से तो पाकिस्तान ने आतंकवाद के नाम पर भारत के खिलाफ छप्र युद्ध ही छेड़ रखा है । पाकिस्तान की भारत के प्रति ही नहीं बल्कि अपने ही देश के नागरिकों बलोचों , पश्तूनों और सिन्धियों के प्रति भी निराशाजनक ही रही । इनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा । उनकी अपनी भाषा और संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास होते रहे और हो रहे हैं । उन पर जबरदस्ती उर्दू लादा गया जबकि उनकी अपनी भाषा का उर्दू से कोई नाता नहीं था । पाकिस्तान अपने ही नागरिकों के दमन में अग्रणी हो गया । शिया समाज के लिए यह विभाजन खौफ का पर्याय बन गया । मूल प्रश्न यह है कि क्या पाकिस्तान के लोग यानि बलोच, पश्तून, इस्लाम में दीक्षित हो चुके पंजाबी, बंगाली, सिन्धी 1947 में हुए विभाजन के इस प्रयोग के बाद प्रसन्न और सुखी हैं ? इसका उत्तर नकारात्मक ही कहा जायेगा । यहाँ तक बंगालियों का सवाल है वे तो इस नए प्रयोग से इतने त्रस्त हुए कि 1971 में पाकिस्तान से अलग ही हो गए । पाकिस्तान की सेना ने उन पर अमानवीय अत्याचार किए लेकिन वे डरे नहीं । पाकिस्तान से अलग होकर ही माने ।

बलोच और पश्तून तो पहले दिन से ही इस प्रयोग का विरोध करते रहे । पश्तून नेता खान अब्दुल गफ्पफार खान ने तो 1947 में ही कांग्रेस को धिक्कारते हुए कहा था कि आपने हमें भेडियों के आगे पफेंक दिया है । सिन्धियों ने अरसे से पाकिस्तान के खघ्लिापफ मोर्चा खोला हुआ है । बलोचिस्तान को पाकिस्तान में मिलाए जाने की प्रक्रिया का उस दिन से ही विरोध होता रहा है , जब पाकिस्तानी सेना ने बलोचिस्तान पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया था । 1947 से पहले बलोचिस्तान के चार हिस्से थे । ब्रिटिश बलोचिस्तान , जनजातिय बलोचिस्तान और बलोचिस्तान की रियासतें , मसलन कलात , लासबेला, खरात और मकरान । पाकिस्तान ने शुरु में बलोचिस्तान के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार कर लिया था । वहाँ की संसद ने पाकिस्तान में शामिल न होने का प्रस्ताव भी पारित कर दिया था । लेकिन बाद में पाकिस्तानी सेना ने उस पर कघ्ब्जा कर लिया । तभी से बलोचिस्तान में कभी कम कभी ज्यादा तेजी से पाकिस्तान से अलग होने का आन्दोलन चलता रहता है । रही बात अमरीका-ब्रिटिश धुरी द्वारा भारत को घेरे रखने के लिए पाकिस्तान के उपयोग की , शीत युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व राजनीति का परिदृष्य ही बदल गया है । अब शायद अमेरिका और ब्रिटेन को भारत को घेरने की जरुरत नहीं है । उस लिहाज से भी पाकिस्तान की उतनी उपयोगिता नहीं रही । लेकिन पिफर भी एक प्रश्न तो उठाया ही जा सकता है कि भारत को पाकिस्तान के भीतर चल रही इस उथल पुथल के बारे में प्रश्न करने का क्या नैतिक या वैधानिक अधिकार है ? फिलहाल नैतिकता की चर्चा न भी की जाए केवल वैधानिक लिहाज से ही देखा जाए तो 1947 में भारत को विभाजित करने वाला प्रस्ताव भारत के लोगों ने यह सोच कर ही स्वीकार किया था कि बलोचिस्तान, सिन्ध, पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के क्षेत्र में रहने वाले भारतीय नागरिक इन क्षेत्रों को अलग प्रशासनिक यूनिट के तौर पर स्थापित कर देने से ज्यादा संतुष्ट और सुखी होंगे । यहाँ तक कि बिहार और उत्तर प्रदेश से भी कुछ मुसलमान भी पाकिस्तान का नाम दिए गए इस क्षेत्र में यही सोच कर चले गए । लेकिन आज 70 साल बाद लगता है कि वह प्रयोग असपफल हो गया । पाकिस्तान नाम के इस क्षेत्र में पंजाबी मुस्लिम सेना ने बलोचों ,बंगालियों , पश्तूनों व सिन्धियों का दमन ही नहीं बल्कि उन्हें दोयम दर्जे का बना कर रखना शुरु कर दिया । अत विभाजन के इस पूरे प्रयोग पर भारत को पुनर्विचार करने का या फिर उस पर नए सिरे पर बहस करने का अधिकार है ही ।

भारत को उस क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों से इन तमाम विषयों पर संवाद स्थापित करने का अधिकार है ही । यहाँ तक गिलगित और बल्तीस्तान का प्रश्न है , ये क्षेत्र तो विभाजन के अधिनियम में पाकिस्तान को नहीं दिए गए थे । इन पर पाकिस्तान ने बलपूर्वक कब्जा जमा रखा है । यहाँ के लोगों पर की विपरीत स्थितियों में भारत चिन्ता नहीं करेगा तो और कौन करेगा ? बदली परिस्थितियों में भारत की पाकिस्तान के प्रति क्या नीति होनी चाहिए , इस पर पाकिस्तान में भी बहस होने लगी है । उस भूखण्ड में रहने वाले नागरिकों के प्रति , जो पाकिस्तान बनने से पहले भौगोलिक लिहाज से अलग नहीं थे , भारत की क्या नीति होनी चाहिए ? पाकिस्तान के बलोचों , पश्तूनों , सिन्धियों और शिया समाज के लोगों में बहस होने लगी कि क्या उनके प्रति भारत का कोई कर्तव्य नहीं है ? क्योंकि वे कुछ साल पहले तक तो भारत का ही हिस्सा थे ? विभाजन का प्रयोग असपफल हो जाने के बाद क्या इस सारे मामले पर पुनर्विचार करने का अवसर नहीं आ गया है ? बंगला देश की स्थापना के बाद पाकिस्तान में विभाजन के प्रयोग की असपफलता की बहस और भी तेज हो गई । इस बहस को किसी भी तरह से रोकने के लिए पाकिस्तान के हुकमरानों और सेना ने भारत पर हमले और तेज कर दिए । मुम्बई पर हमला , भारत की संसद पर हमला , पठानकोट और उड़ी के सैनिक शिविरों पर हमला पाकिस्तान के हुकमरानों की इसी रणनीति की ओर संकेत करते हैं । इस पृष्ठभूमि में यह जरुरी हो गया था कि भारत सरकार अपनी पाकिस्तान नीति पर समग्र रुप से पुनः विचार करती । प्रश्न केवल पाकिस्तान द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किए जा रहे हमलों का जबाव देने का ही नहीं है , मूल प्रश्न भारत के विभाजन की नीति पर ही पुनर्विचार का है और सिन्ध प्रदेश , बलोचिस्तान , खैबर पख्तूनख्वा के नागरिकों के प्रति भारत के कर्तव्य का भी है ? 1947 में ही बाबा साहिब आम्बेडकर ने कहा था कि देर सवेर भारत को और पाकिस्तान के नागरिकों को भी विभाजन के इस प्रयोग पर पुनर्विचार करना पड़ेगा । उन्होंने इस प्रयोग की असफलता की घोषणा पहले दिन ही कर दी थी ।

नरेन्द्र मोदी को इस बात का श्रेय जायेगा कि उन्होंने साहस के साथ पाकिस्तान में हो रही इस बहस पर खुलकर अपनी राय और नीति व्यक्त की है । इस नीति का एक हिस्सा है पाकिस्तान द्वारा भारत पर किए जा रहे आक्रमणों का दृढतापूर्ण उत्तर देना । उड़ी के सैनिक शिविर पर जब पाकिस्तान द्वारा भेजें गए प्रशिक्षित आतंकियों ने हमला किया तो भारत सरकार ने हाय तौबा मचाने की बजाए उसका समुचित उत्तर दिया जो अब देश के सैनिक इतिहास में सरजिकल स्ट्राईक के नाम से प्रसिद्ध हो गया है । इसमें भारतीय सेना ने पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा को पार करते हुए शत्रु के ठिकानों पर आक्रमण किया और पैंतीस से भी ज्यादा आतंकवादियों को मार गिराया । प्रशिक्षण शिविरों को नुकसान पहुँचाया । इससे भारत की सेना नियंत्रण रेखा पार नहीं करती थी । जब आतंकी किसी भी तरीके से जम्मू कश्मीर में घुसने में कामयाब हो जाते थे , तब उनसे निपटने का उपाय करती थी । लेकिन भारत ने पहली बार अपनी इस नीति को बदला है और नियंत्रण रेखा पार कर शत्रु के ठिकानों पर हमला करने की पहल की है । इससे पहले लम्बे समय तक भारत इसी भ्रम का शिकार रहा कि पाकिस्तान आतंक से सताया हुआ देश है या फिर आतंक का निर्यात करने वाला देश ? पूर्व प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह तो एक बार पाकिस्तान के साथ मिल कर आतंक से लड़ने की रणनीति बनाने की बातें भी करने लगे थे । फिर अच्छे आतंकी और बुरे आतंकी के नाम से आतंकियों के वर्गीकरण की योजना अपनी राजनैतिक सुविधा के लिए चलाई तो भारत उसका भी शिकार होने लगे ।

एक समय ऐसा भी आया जब पाकिस्तान के आतंकी हमलों से घायल होकर भारत अमेरिका के आगे शिकायत लगाने और पाकिस्तान की शमूलियत के प्रमाण एकत्रित करने तक सिमट गया । लेकिन नरेन्द्र मोदी ने रिएक्ट करने की बजाए एक्ट करने की नीति बना कर पाकिस्तान के भीतर के परिदृष्य को भी बदल लिया है । सबसे बढ़ कर तो उन लाखों बलोचों , सिन्धियों व पश्तूनों में उत्साह का संचार हुआ है जो इन सात दशकों में यह मानने लगे हैं कि भारत विभाजन और मजहब के आधार पर पाकिस्तान की स्थापना का प्रयोग सफल नहीं हुआ और इससे आम नागरिक के जीवन में गिरावट आई है । दूसरे पाकिस्तान के हुकमरानों और वहाँ के सेना संस्थान को यह संदेश चला गया है कि पहल का अधिकार उनके हाथ से छिन कर भारत के हाथ में भी चला गया है । सेना के लोग जानते हैं कि इस प्रकार के हमलों में पहल करने वाले पक्ष को लाजिमी कुछ सीमा तक सफलता मिलती है । पाकिस्तान आज तक उसी आंशिक सफलता के बलबूते अपनी पीठ थपथपाता रहा है । इस सैनिक पहल के साथ साथ भारत ने विश्व में पाकिस्तान का असली आतंकी चेहरा उजागर करने में सफलता प्राप्त की है । पाकिस्तान से निकल रहे आतंकवाद और अण्ड देशों से निकल रहे आतंकवाद में एक मौलिक अन्तर है । पाकिस्तान से निकला आतंकवाद , पाकिस्तान विदेश नीति का हिस्सा है और वह उसकी राज्य नीति में से निकला है । अब भारत अच्छे आतंकी और बुरे आतंकी की कृत्रिम बहस से बाहर निकल आया है । इसे मोदी सरकार की सफलता माना जाएगा कि उसने आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान को विश्व भर में आईसोलेट कर दिया है । उड़ी पर आक्रमण के बाद शायद ही कोई देश हो जिसने पाकिस्तान को दोषी न माना हो । लेकिन नीति परिवर्तन का सबसे बड़ा अध्याय तब शुरु हुआ जब नरेन्द्र मोदी ने आपसी समस्याओं को लेकर पाकिस्तान के नागरिकों से सीधी बातचीत करनी शुरु कर दी ।

उन्होंने पाकिस्तान को चेताया कि बलूचों के साथ इस प्रकार का शत्रु जैसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है ? पाकिस्तान अनधिकृत गिलगित बल्तीस्तान में शिया समाज के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को निशाना क्यों बनाया जा रहा है ? भारत द्वारा इन लोगों के साथ सीधी बातचीत को लेकर पाकिस्तान में मानों भूचाल ही आ गया हो । बलूचों ने , गिलगितियों ने , बल्तियों ने जगह जगह पाकिस्तान के हुकुमरानों के खिलाफ प्रदर्शन शुरु कर दिए । उनके इन प्रदर्शनों ने भारत विभाजन के प्रयोग के असपफल होने की अपने आप घोषणा कर दी । पाकिस्तान में एक नई बहस शुरु हो गई है । सबसे बढ़कर पाकिस्तान के दो महत्वपूर्ण समुदाय जिन्हें भारत विभाजन का सबसे ज्यादा लाभ हुआ है , मसलन पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी शासक, आपस में उलझ रहे हैं । सिविल शासकों का सेना पर आरोप है कि वह आतंकियों को शह देती है , जिसके कारण दुनिया भर में पाकिस्तान की पहचान गुंडा राज्य के तौर पर होने लगी है और जिसके कारण भारत की स्थिति विश्व राजनीति में मजबूत होती जा रही है ।