राष्ट्रगान महज मनोरंजन प्रयुक्त जुमला या गीत नहीं

नई दिल्ली। राष्ट्रगान महज मनोरंजन प्रयुक्त जुमला या गीत नहीं है। इसके गुनगुनाने मात्र से ही हमारे भीतर देशभक्ति का भाव जगता है। राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज के प्रति जब हम सम्मान प्रदर्शित करते हैं तो इससे मातृभूमि के प्रति प्रेम और सम्मान झलकता है। 26 जनवरी, 15 अगस्त आदि विशेष दिनों तक ही इसे सीमित नहीं रखना चाहिए। अदालत के इस फैसले से कुछ लोग विरोध कर रहे हैं, तो कुछ परेशान भी हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार का कोर्ट की आड़ में यह जबरन थोपने वाला तुगलकी फरमान है। यह बात भी सर्वविधित और सर्वज्ञानी है कि फैसले को गलत बताने वाले कौन हो सकते हैं? भारत में रहने वाले सभी लोगों के भीतर देशभक्ति की लौ जलाने के लिए सुप्रीमकोर्ट का निर्णय बेहद संस्कारी कहा जाएगा।

देशभक्ति का ख्याल रखते हुए हम सभी हिंदुस्तानियों को इस फैसले का दिल से स्वागत करना चाहिए। फैसले का एक पहलू यह भी हो सकता है कि सिनेमाघरों में कामुकता से भरी अशोभनीय फिल्में मसलन रागिनी एमएमएस, कामसूत्र, ग्रैंड मस्ती जैसी फिल्में देखने से पहले दर्शकों को राष्ट्रगान सुनाया जाएगा। तो फिल्म की वजह से दर्शकों के मन में यदि कोई मनोविकार उपजेगा तो उसका तत्काल मन और हृदय राष्ट्रप्रेम में परिवर्तित हो जायेगा। साथ ही किसी कामुक दृश्य के बजाय देश के प्रति सोचने में मसगूल होगा। अदालत के इस फैसले का हम सभी को सराहना करनी चाहिए। जो इस निर्णय के विरोध में खड़े हैं उन्हें भी देशभक्त और संस्कारी बनाने के इस प्रयास की खुले दिल प्रशंसा करनी चाहिए।

राष्ट्रवाद की भावना सुदृढ़ करने के इरादे से उच्चतम न्यायालय ने हिंदुस्तान के सभी सिनेमाघरों को आदेश दिया कि वे फिल्म का प्रदर्शन शुरू करने से पहले अनिवार्य रूप से राष्ट्रगान बजाएं और दर्शक इसके सम्मान में खड़े हों। यह निर्णय एक याचिका पर न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति अमिताव राय की पीठ ने सुना है। हर हिंदुस्तानी को यह महसूस करना चाहिए कि वे एक राष्ट्र में रह रहे हैं और राष्ट्रगान, जो संवैधानिक देशभक्ति और अंतर्निहित राष्ट्रीय गुण का प्रतीक है, के प्रति सम्मान दर्शाना उनका कर्तव्य है। संविधान में प्रदत्त मौलिक कर्तव्य किसी प्रकार की भिन्न सोच या व्यक्तिगत अधिकारों के नजरिए की अनुमति नहीं देता है।

व्यक्तिगत विचारों के लिए कोई जगह नहीं है। संवैधानिक दृष्टि से यह विचार असंभव है। न्यायालय ने कहा कि ये निर्देश दिए जा रहे हैं जो राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करते समय मातृभूमि के प्रति प्रेम और सम्मान दर्शाता है। पीठ ने संविधान में प्रदत्त मौलिक कर्तव्यों का जिक्र करते हुए कहा कि यह एकदम स्पष्ट है कि संविधान में उकेरे गए विचारों का पालन करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का दायित्व है। चाहें वह किसी वर्ग विशेष व समुदाय से ताल्लुक रखता हो। कोर्ट की टिप्पणी से हमें सहमति जतानी चाहिए। राष्ट्रगान को फिल्मों में बजाने पर पहले भी कई दपफे विरोध हुआ था। जिस जज ने इस पफैसले पर अब हरी झंडी दिखाई है, कुछ साल पहले उन्होंने इस याचिका को निरस्त कर दिया था। लेकिन याचिकाकर्ता ने हार नहीं मानी आखिर में 13 साल बाद उनके पफैसले पर सुप्रीम कोर्ट को विचार करना पड़ा, उनके पक्ष में निर्णय लिया गया। सुप्रीम कोर्ट के अहम आदेश के मुताबिक सभी सिनेमा घरों में फिल्म के शुरू होने से पहले राष्ट्रगान चलवाना होगा। साथ ही राष्ट्रगान के वक्त पर्दे पर तिरंगा भी दिखाना होगा। राष्ट्रगान के सम्मान में सभी दर्शकों को एक साथ खड़ा होना होगा। इस निर्णय को तत्काल प्रभाव से 10 दिनों के भीतर सभी को लागू करना होगा। ऐसा न करने पर सजा व दण्ड का प्रावधान भी है। राष्ट्रगान बजाने की जनहित याचिका श्याम नारायण चैकसे ने डाली थी। उन्होंने मांग की थी कि देशभर में सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाना चाहिए और इसे बजाने तथा सरकारी समारोहों और कार्यक्रमों में इसे गाने के संबंध में उचित नियम और प्रोटोकाॅल तय होने चाहिएं जहां संवैधानिक पदों पर बैठे लोग मौजूद होते हैं। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजे इसका समर्थन महानायक अमिताभ बच्चन और फिल्मकार सुजीत सरकार ने भी किया था। उन्होंने कहा था कि अगर राष्ट्रगान बजाते हैं तो यह अच्छी बात होगी। राष्ट्रगान सुनकर बहुत अच्छा महसूस होता है और इस तरह की पहल करनी चाहिए। वैसे देखा जाए तो सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने की परंपरा कापफी सालों से रही है। लेकिन सिनेमा वाले खाली वक्त में विज्ञापन दिखाना ही उचित समझते हैं।

प्रत्येक फिल्म के शुरूआत में लगभग दस मिनट तक तरह-तरह के बेहूदा किस्म के विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अगर इसी बीच में कुछ क्षण के लिए सिनेमा घरों में भक्ति की लौ भी पफैल जाए जो हर्ज किया है। राष्ट्रगान सुनकर शरीर में सिहरन पैदा होती है जो शुःखद एहसास कराती है। राष्ट्रगान सुनकर हमें भारतीय होने का गर्व महसूस होता है। इम्तियाज जलील ने फिल्मों में राष्ट्रगान बजाने का विरोध किया है। जलील एआईएमआईएम पार्टी से विधायक हैं। सर्वविधित है कि इनकी पार्टी राष्ट्रभक्ती के कदमों के खिलाफ हमेशा आवाज उठाती रही है। राष्ट्रगान बजाने की जनहित याचिका दायर करने वाले श्याम नारायण चैकसे की दलील पर जलील ने पिछले साल दिसंबर में कहा था कि सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाने की कतई जरूरत नहीं है क्योंकि लोग वहां मनोरंजन के लिए जाते हैं। उनका मानना है कि सिनेमाघरों में महज राष्ट्रगान गाना किसी को देशभक्त नहीं बनाता।

इससे लोगों के मनोरंजन का मजा किरकिरा हो जाता है। गौरतलब है कि विधायक जलील के अलावा कुछ मुठ्ठी भर लोग और हैं जो मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के पफैसले का विरोध कर रहे हैं। ऐसे लोगों को एक बात समझनी चाहिए की आखिर राष्ट्रगान सुनने में उन्हें दिक्कत क्यों है? क्या वह खुद को भारतवासी नहीं मानते, क्या उनको राष्ट्रहित से कोई लेना देना नहीं। फिल्मों में बेहूदा किस्म के विज्ञापन देख सकते हैं पर राष्ट्रगान नहीं सुन सकते। आखिर क्यों? जलील साहब जब तक हम राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज व मातृभूमि के प्रति वफादार नहीं होंगे तब तक हम सच्चे भारतवासी नहीं हो सकते। संविधान में प्रदत्त मौलिक कर्तव्यों की रक्षा करना हम सभी की जिम्मेदारी है। संविधान के गर्भ में देशभक्ति के भाव में उकेरे गए प्रत्येक विचार को हमें ग्रहण करना होगा। राष्ट्रगान के प्रति हमें दिवानगी दिखानी चाहिए। इस गाने से मोहब्बत करनी चाहिए।