कुछ लोग शिव और शंकर में अंतर नहीं समझते। वे कहते हैं कि शिव और शंकर एक ही इष्ट के दो नाम हैं। अब प्रशन उठता है ‘शिवलिंग’ नामक प्रतिमा और शंकर की देवाकार मूर्ति- ये दो अलग, भिन्न-भिन्न रूप वाले स्मरण-चित क्यों हैं? किसी मित्र के पिता को उसके परिचित ‘गुप्ता जी’ अथवा ‘रमेशचंद्र जी’ और उसके माता-पिता ‘‘रम्मू’’ अथवा ‘‘मेशी’’ कहकर पुकारते हों, यह तो हो सकता है परन्तु उस व्यक्ति का छायाचित्र अथवा कलाकार द्वारा बनाई उसकी प्रतिमूर्ति एक ही रूप की होगी न ? बाल रूप की और वृद्ध रूप की दो अलग रूप वाली फोटो भी हो सकती हैं जिनमें काफी अंतर दिखाई देता है, परन्तु दोनों सशरीर, सकाय अर्थात पिण्ड धारण किए हुए तो होंगे न? परन्तु शिव पिंडी तो अंडाकार ही होती है और शंकर की मूर्ति अंग-प्रत्यंग सहित ही सदास्थापित और पूजित होती है, यहां तक कि उस देवाकार मूर्ति का कोई अंग थोड़ा भी खंडित हो जाय तो उस अंग-भंग मूर्ति को पूजा के योग्य ही नहीं माना जाता। फिर शिव की मंडलाकार प्रतिमा को तो श्ज्योतिर्लिंगमश् ही माना जाता है जबकि शंकर जी को यह संज्ञा नहीं दी जाती।
अन्यश्च, शंकर जी को तो प्रायः समाधिस्थ ही दिखाया जाता है जो इस बात का प्रतीक है कि वे स्वयं किसी ध्येय के ध्यान में मन को समाहित किए हुए हैं। शिव पिंडी में कोई ऐसा भाव प्रदर्शित न होने से वह स्वयं ही परम स्मरणीय है। अतः दोनों का अंतर प्रत्यक्ष ही है। फिर भी इसको एक ओर रख कर कुछ लोग शिवलिंग को पृष्ठ भूमिका में देकर उस पर शंकर की मुखाकृति अंकित कर देते हैं। अन्य कई चित्रकार शंकर जी से ज्योतिर्लिंग को प्रकट होता हुआ दिखा देते हैं और पुराणों में तो ऐसी भी कथाएं अंकित हैं कि ‘शिव’ ‘शंकर’ जी का ही एक शरीर-भाग है। सचमुच, यह तो मनुष्य की अज्ञानता की पराकाष्ठा ही है कि वे एक ओर खंडित काया वाले देव की पूजा नहीं करते और दूसरी ओर वे किसी एक ही शरीर-भाग की पूजा की बात कहते हैं। स्पष्ट रूप से यह बात विवेक-विरुद्ध है।