Lockout done without any rules and regulations
- सीएम के आदेश की आड़ में जमकर की गई मनमानी
- मदरसों की सीलिंग ने उठाए शासन-प्रशासन पर बड़े सवाल
- नियमों से बड़ी हो रही उत्तराखण्ड में सत्ता की हनक
मौहम्मद शाह नज़र
देहरादून। Lockout done without any rules and regulations उत्तराखंड में मदरसों पर चला सरकारी ‘ताला’ अब खुद शासन-प्रशासन के लिए ही गले की फांस बनता दिख रहा है। मुख्यमंत्री के आदेश पर 700 से ज्यादा मदरसों की जांच और 200 से अधिक मदरसों की सीलिंग तो कर दी गई, मगर जब सूचना के अधिकार के तहत इसकी बारीकी सामने आई, तो हकीकत चौंकाने वाली निकली, पूरी कार्रवाई का कोई वैधानिक आधार ही नहीं था।
आरटीआई के खुलासे ने यह साफ कर दिया है कि उत्तराखंड में मदरसों पर चला सरकारी ताला कानूनी नहीं, बल्कि महज़ प्रशासनिक आदेश का नतीजा था। यह सिर्फ एक कार्रवाई नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक ढांचे और नागरिक अधिकारों के हनन का मामला बन रहा है। सवाल यही है, क्या हमारे लोकतंत्र में कानून सर्वाेपरि रहेगा, या फिर ‘आका’ का आदेश ही नया कानून बन जाएगा?
सूचना कार्यकर्ता नदीम उद्दीन एडवोकेट ने मदरसा बोर्ड, अल्पसंख्यक कल्याण विभाग और जिला प्रशासन से सीलिंग व जांच से जुड़े नियम-प्रावधान मांगे। सभी संबंधित विभागों ने अल्पसंख्यक कल्याण निदेशालय के उप निदेशक हरीश बसेड़ा के सामने हुई।
अपील पर सुनवाई के दौरान यह स्वीकार किया कि उनके पास ऐसा कोई भी नियम-कायदा उपलब्ध नहीं है, जिस के तहत मदरसों की जांच और सीलिंग की कार्यवाही की गई है। दरअसल, 19 दिसम्बर 2024 को मुख्यमंत्री की ओर से प्रमुख सचिव को एक पत्र भेजा गया, जिसमें अपंजीकृत मदरसों की जांच कर आख्या मांगी गई थी, इसी पत्र केे बाद सारी कार्यवाही हुई।
आदेश बनाम कानून, किसका पालन?
लोकतांत्रिक व्यवस्था का तकाज़ा है कि हर कार्रवाई कानून और नियमों की चौखट में हो। लेकिन इस मामले में शासन ने सीधे जिलाधिकारियों को आदेश थमाया और उन्होंने ‘उच्चस्तरीय जांच समिति’ बनाकर मदरसों का सर्वे कर डाला। आरटीआई में खुद मदरसा बोर्ड, अल्पसंख्यक कल्याण विभाग, डीएम-एसडीएम दफ्तर सबने लिखित तौर पर स्वीकार किया, कोई नियम-प्रावधान हमारे पास उपलब्ध नहीं है। सवाल यह है कि जब कानून ही मौजूद नहीं, तो फिर इतनी बड़ी कार्रवाई का आधार क्या था?
विभाग की स्वीकारोक्ति, ‘नहीं हैं नियम-प्रावधान’
प्रमुख सचिव से लेकर जिला स्तर तक, हर अधिकारी ने यह मान लिया कि जांच व सीलिंग का कोई वैधानिक ढांचा उनके पास नहीं है। पूरी कार्रवाई केवल मुख्यमंत्री के आदेश पर आधारित रही। 23 दिसम्बर 2024 को शासन ने सभी जिलाधिकारियों को निर्देश भेजा कि 10 दिनों के भीतर रिपोर्ट भेजें। यानी क़ानून की कसौटी पर नहीं, बल्कि आदेश की आड़ में मनमानी हुई।
जांच का नतीजाः कोई भी गैरकानूनी गतिविधि नहीं मिली
- सबसे दिलचस्प तथ्य यह निकला कि 8 जिलों में 680 मदरसों की जांच हुई।
- 410 पंजीकृत
- 270 अपंजीकृत
- लेकिन किसी भी रिपोर्ट में एक भी मदरसा संदिग्ध या गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त नहीं मिला। यानी कार्रवाई का निष्कर्ष शून्य रहा, पर असर गहरा।
अल्पसंख्यक समुदाय के सवाल
- यह घटना सिर्फ मदरसों तक सीमित नहीं है। यह अल्पसंख्यक समुदाय को संविधान में मिले अधिकारों और विश्वास से जुड़ा सवाल है।
- क्या आदेश कानून से ऊपर है?
- क्या बिना नियम-कायदों के इस तरह की कार्रवाई संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ नहीं?
- क्या यह प्रशासनिक तंत्र की मनमानी और भेदभावपूर्ण रवैया नहीं दर्शाता?
लोकतंत्र का असली इम्तिहान
लोकतंत्र में शासन की असली ताक़त कानून होता है, न कि केवल आदेश। जब किसी विशेष समुदाय के शैक्षणिक संस्थानों को बिना कानूनी आधार के निशाना बनाया जाता है, तो यह न सिर्फ संविधान की आत्मा को चोट पहुँचाता है, बल्कि समाज में असुरक्षा और अविश्वास की खाई भी गहरी करता है।
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