ऑटिज्म (आत्मकेंद्रित) रोग दुनिया के सभी देशों के बच्चों में पाई जाती है, लेकिन इस बीमारी के शिकार अधिकांश बच्चे विकासशील और विकसित देशों में पाए जाते हैं। वैसे कई अन्य बीमारियां पिछड़े या कम आय वाले देशों में पाई जाती है, लेकिन उनके विपरीत ऑटिज्म अमीर देशों और विकासशील देशों में अधिक पाई जाती है। यह एक मानसिक बीमारी है, जिसमें रोगी अपने आप में खो जाता है और अजीब अपरिपक्व इच्छाओं और बातों में खोया रहता है, जबकि उसके चेहरे खैरो ख्याल भी बदल जाते हैं।
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लेकिन सवाल यह है कि ऑटिज्म का पता लड़कों की तुलना लड़कियों देरी से क्यों होता है? हाल ही में अमेरिकी शहर सैन फ्रांसिस्को में होने वाली 16 वीं इन्टरनेशनल ऑटिज्म बैठक सम्मेलन में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के विशेषज्ञों की एक टीम ने इस सवाल का जवाब दिया। विज्ञान जर्नल रिपोर्ट के अनुसार सम्मेलन में विशेषज्ञों ने बताया कि ऑटिज्म के लिए कोई विशेष परीक्षण नहीं होते, जिससे यह पता लगाया जाए कि बच्चे में इसके प्रभाव है कि नहीं, बल्कि उसका अधिकांश पता चेहरे की खैरो ख्याल परिवर्तन और मानसिक क्षमताओं के घटिया इस्तेमाल के बाद लगाया जाता है।
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विशेषज्ञों की टीम में शामिल प्रोफेसर डॉक्टर विलियम मैंडी ने कहा कि ज्यादातर लड़कियों में ऑटिज्म के आसार यौवन तक प्रकट नहीं होते, लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी लड़कियों ऑटिज्म का पता यौवन के बाद लगता है। विशेषज्ञों के अनुसार लड़कों में ऑटिज्म के आसार 7 साल में सामने आना शुरू होते हैं, जबकि आम तौर पर लड़कियों में इसके प्रभाव 10 साल की उम्र में दिखाई देते हैं। विशेषज्ञों ने बताया कि कुछ लोगों में भी ऑटिज्म के आसार यौवन के बाद दिखाई देते हैं, लेकिन अधिकांश बच्चों में इसके आसार 7, 10, 13 और 16 साल की उम्र तक दिखाई देते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार लड़कियों में ऑटिज्म के आसार पहले 10 साल की उम्र में दिखाई देते हैं, जबकि ज्यादातर लड़कियों में यौवन के तुरंत बाद ही ऑटिज्म के लक्षण दिखाई देना शुरू होते हैं।
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गौरतलब है कि कुछ बच्चों में ऑटिज्म के आसार 18 महीने की उम्र में ही दिखाई देते हैं, जबकि कुछ बच्चों में तीन साल की उम्र में होते हैं। इस रोग को बच्चे की बोल चाल, सामाजिक, बुद्धि और स्वयं सहायता जैसे कारकों को प्रभावित करता है। इस रोग से पीड़ित बच्चा अपनी दुनिया में गुम होकर रह जाता है और इसे बाहरी दुनिया से कोई सरोकार नहीं होता।