देहरादून । उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद अब तक चार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। लेकिन एक बार भी जनता ने किसी सरकार को रिपीट नहीं किया। यह तो ठीक है। पहले दल की सरकार को नकारा जरूर है। लेकिन ऐसे नहीं जैसा हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस को नकारा। इसे क्या कहेंगे, हरीश रावत की हार या कांग्रेस की हार? इसमें किसी को कोई संशय नहीं है कि जब से उत्तराखण्ड में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सरकार की कमान संभाली, वे एकला चलो की नीति पर ही चले।
उन्होेंने कभी अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों व संगठन को साथ लेकर चलने की जरूरत नहीं समझी। इस विषय पर पहले तत्ककालीन प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य ने कई बार हरीश रावत को आगाह भी किया था कि पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्मान नहीं दिया जायेगा तो संगठन कमजोर होगा। इसके बाद प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी किशोर उपाध्याय को मिली। माना जा रहा था कि किशोर उपाध्याय हरीश खेमे के हैं, अब सरकार और संगठन के बीच चल रही संवादहीनता तालमेल में बदल जायेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शायद किसी को नहीं मालूम था कि हरीश रावत ने किशोर उपाध्याय को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की पैरवी एक सोची समझी रणनीति के तहत की थी। वे किशोर उपाध्याय को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे। जो उन्होंने काफी हद तक किया भी। किशोर को जब तक इसका अभास हुआ तब तक काफी देर हो चुकी थी। यह समय था राज्यसभा चुनाव का जब किशोर ने राज्यसभा जाने की प्रबल इच्छा हरीश रावत के सामने रखी।
लेकिन हरीश रावत ने झांसे में रखते हुए ऐन वक्त पर अपने अनन्य भक्त प्रदीप टम्टा को राज्यसभा भेज दिया। जुमला भी खूबसूरत गढ़ा यह दलितों का सम्मान है। उत्तराखण्ड में पहली बार ऐसा हुआ है। जबकि वे भूल गये कि इससे पहले भाजपा दो दलितों को उत्तराखण्ड से राज्यसभा भेज चुकी थी। खैर! यह तो राजनीति है, थोड़ा छल-कपट तो चलता ही है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। जिसने जनता की नब्ज को नहीं टटोला वह राजनीति में सफल नहीं हो सकता है। हरीश रावत ने सबसे बड़ी भूल यही की। उन्होंने अपने को प्रधानमंत्री के नरेंद्र मोदी समकक्ष खड़ा करने का प्रयास किया। जिसकी हिम्मत अभी तक कांग्रेस अध्यक्ष सोनियां गांधी और राहुल गांधी भी नहीं जुटा पाये। इस कृत्य ने हरीश रावत को हाईकमान की नजरों में भी चढ़ा दिया। इसके बाद हाईकमान ने हरीश रावत को अकेला छोड़ने का मन बना लिया था। यह सब 18 मार्च 2016 के घटनाक्रम के बाद से विधानसभा चुनाव तक स्पष्ट रूप से दिखाई दिया।
कांग्रेस हाईकमान की दूरी का हरीश रावत ने पूरा फायदा उठाया और विधानसभा चुनाव की पूरी योजना अपने मनमाफिक बनाई। इस योजना की प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को भनक तक नहीं लगने दी। प्रदेश अध्यक्ष की सलाह लेना तो दूर उनको अपने ही विधानसभा क्षेत्र से बाहर का रास्ता दिखाते हुए देहरादून की सहसपुर सीट पर पटक दिया। हरीश रावत जानते थे कि किशोर उपाध्याय कांग्रेस के अनुकूल माहौल होने पर भी सहसपुर से चुनाव नहीं जीत पायेंगे। जो हुआ वह सब जनता के सामने है। आज किशोर को विधानसभा चुनाव की करार हार का सबसे बड़ा जिम्मेदार मानते हुए प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है।
पूर्व मंत्री व चकराता के विधायक प्रीतम सिंह को कमान सौंप दी है।
अभी भी कांग्रेस यह नहीं समझ पाई है कि उत्तराखण्ड में कांग्रेस का हाशिये पर जाने का कारण क्या है। हरीश रावत या किशोर उपाध्याय। कांग्रेस में प्रभावशाली नेतृत्व का संकट तो है ही। साथ ही कांग्रेस की कमजोरी भी दूर करने की जरूरत है। कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी सत्ता है। सत्ता जब तक कांग्रेस के पास रहती है, कांग्रेसी एकजुट रहते हैं। सत्ता जैसे ही हाथ से निकलती है। कांग्रेसियों में घमासान मचना शुरू हो जाता है। ऐसा कई बार देखा जा चुका है। जब लोकसभा चुनाव 2014 में राष्ट्रीय स्तर शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा तो कांग्रेस के छोटे-बड़े सभी नेता एक सुर में हाईकमान की कार्यशैली पर उंगली उठाने लगे थे और यही अब उत्तराखण्ड में चल रहा है। कांग्रेस को फिर से स्थापित होना है तो चली रही परिपाटी में आमूलचूल परिवर्तन करने की सख्त जरूरत है।