रामबहादुर राय
कांग्रेस-सपा गठबंधन से उत्तर प्रदेश में नया राजनीतिक प्रयोग प्रारंभ हुआ है। यह परस्पर विरोधी गठबंधन है। पचास साल का राजनीतिक इतिहास यही बताता है। इस मायने में इतिहास को नकारने की यह कोशिश है या राजनीतिक विवशता? कांग्रेस का वर्चस्व 1967 में टूटा। तब गैर-कांग्रेसवाद का प्रयोग प्रारंभ हुआ। उसी के राजनीतिक परिणाम हैं, मुलायम सिंह यादव। उस प्रयोग ने ही अनेक टेढ़े-मेढे खतरनाक रास्ते पार किए। कांग्रेस को हाशिये पर पहुंचा दिया। उसे भुलाना मुलायम सिंह के लिए आसान नहीं है। लेकिन अखिलेश को उसकी याद भी नहीं है। उसी तरह इंदिरा गांधी होतीं तो वे सपा से बात नहीं करतीं। वे हैं नहीं। उनकी पारिवारिक विरासत राहुल संभाल रहे हैं, राजनीतिक विरासत नहीं। यही बात अखिलेश यादव पर भी लागू होती है। वे मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत को भुलाने पर तुले हैं।
इस अंतरविरोध में एक समानता है। अखिलेश और राहुल इतिहास के बोझ से मुक्त हैं। इतिहास दृष्टि से भी। इसलिए वे एक साथ खड़े हो सकते हैं। नारा दिया-यूपी को ये साथ पसंद है। इसकी शुरुआत 22 जनवरी को हुई। उस दिन सपा ने कांग्रेस से हाथ मिलाने की घोषणा की। जिस गठबंधन की चर्चा थी, अनुमान लगाए जा रहे थे, वह साकार हुआ। उसके एक हफ्ते बाद अखिलेश और राहुल मीडिया के सामने आए। वह साझा नजारा था। बड़ी-सी मुस्कुराहट। एक ही रंग के जैकेट। गर्मजोशी से झप्पी और एक-दूसरे से हाथ मिलाने का नजारा लखनऊ ने देखा। मीडिया ने उसे दिखाया। इस तरह नए राजनीतिक प्रयोग की शुरुआत हुई। सब कुछ पहले से तय लग रहा था। वे नारे भी जो लगाए गए। वे बोल भी जो बोले गए। अखिलेश के सलाहकारों ने उन्हें नारा दिया। जिसे वे बोले श्साइकिल के साथ हाथ हो तो सोचो रफ्तार कितनी होगी।श् वे भूल गए कि साइकिल के साथ हाथ से रफ्तार नहीं आती। रफ्तार आती है, पैडल कितनी ताकत से चलाई जा रही है। रास्ता कितना सुगम या कठिन है। सपाट है या चढ़ाई है।
मैदान है या पहाड़ है। इन बातों का अखिलेश यादव और राहुल गांधी को जरूर ख्याल होगा। पर ये बातें नारे में बंद नहीं हो सकतीं। उनका दायरा नारे से बाहर उनमें पफैला हुआ है जो उसे लगाते हैं। उसी तरह राहुल गांधी को सुझाया गया होगा जिसे वे बोले कि श्यह गंगा और यमुना का संगम है, जिसमें से तरक्की की सरस्वती निकलेगी।श् वे जहां थे वहां तो गोमती बहती है। उसे भूल गए। संगम की भी गलत समझ दिखाई। गंगा यमुना के संगम में सरस्वती दिखती नहीं है। इसलिए उनके निकलने का तो सवाल ही नहीं है। पर राहुल गांधी से इससे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। क्योंकि अभी तक उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय नहीं दिया है। यह गठबंधन भी सपा और कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के अंदरूनी कमजोरियों और घबराहट की देन है। इसके बारे में मीडिया में खबरे छपी हैं। ओपेन पत्रिका के उल्लेख एनपी ने अपनी रिपोर्ट में इसका ब्यौरा दिया है। उसका सार यह है कि जनवरी में एक सर्वे कराया गया। उसके नतीजे से अखिलेश यादव के वार रूम में हड़कंप मच गया।
उसी के बाद कांग्रेस से हाथ मिलाने की कवायद शुरू हुई। सवाल यह है कि क्या यह गठबंधन सपा समर्थकों को रास आएगा? यह उसी तरह का गठबंधन है जैसा 1996 में कांग्रेस ने बसपा के साथ किया था। इस उम्मीद से कि वह उत्तर प्रदेश में वापसी का रास्ता पा लेगी। इस गठबंधन से मुलायम सिंह आहत हैं। गठबंधन से पहले उन्होंने अखिलेश यादव को नेतृत्व सौंपने का विचार बना लिया था। जैसे ही यह सुना कि कांग्रेस से अखिलेश ने हाथ मिला लिया है कि उन्होंने अपने कांग्रेस विरोध को निशान लगाकर बताया। जाहिर है कि मुलायम सिंह ने गठबंधन को खारिज कर दिया है। इससे पूरे प्रदेश में मुलायम समर्थक सपा नेता और कार्यकर्ता बगावत पर उतरेंगे। अनेक तो दूसरी पार्टियों में अपनी जगह बनाएंगे। इस तरह सपा में एक बड़ा बवडंर खड़ा होता दिख रहा है। दूसरी तरफ गठबंधन में कांग्रेस जो 105 सीटें पा सकी है वह इस बवडंर से हतप्रभ हो सकती है। मुलायम सिंह के खारिज करने के कारण यह विवाद भी पैदा होगा कि डाॅ राममनोहर लोहिया का कांग्रेस ने कैसे और कब-कब अपमान किया। इसका जवाब देना अखिलेश यादव के लिए आसान नहीं होगा।