आतंकवाद के खिलाफ ट्रंप और पुतिन की जुगलबंदी

Trump and putin

प्रभुनाथ शुक्ल
अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप की जीत के बाद यह साफ हो गया था कि इस्लामिक आतंकवाद पर उनका नजरिया बेहद सख्त है। संभवतः उनकी जीत के पीछे यह सबसे बड़ा राज था, जिसे हिलेरी और उनके समर्थक नहीं पढ़ पाए। राष्ट्रपति पद की कमान संभालने के बाद से ही उन्होंने आतंकवाद पर कड़ा रुख अख्तियार किया है। इसके पूर्व उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूसी राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन और चीन के नेताओं को भी विश्वास में लिया। हालंकि इस्लामिक आतंवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है, यह एक वैश्विक समस्या बन गया है लेकिन आतंकवाद के सफाए के लिए अमेरीकी नीति को वैश्विक मंच पर कितना समर्थन मिलता है, सवाल इस बात का है। किसी एक विशेष जाति, धर्म के लोगों पर प्रतिबंध लगाना कितना जायज है। अमेरीकी सरकार का यह फैसला क्या अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों के अनुकूल है। उदारवादी विचारधारा और अतिथि देवो भव में विश्वास करने वाला भारत क्या अमेरिका के साथ खड़ा होगा, अगर संम्भव है भी तो किस हद तक यह भी विचारणीय बिंदु है।

अमेरीका में इस फैसल के बाद उदारवादी दलों ने तीखी आलोचना शुरू कर दी है। सात मुस्लिम देशों से आने वाले शरणार्थियों के लिए अमेरिका ने दरवाजा बंद कर दिया है। इसके पीछे उनका तर्क इस्लामिक चरमपंथियों को अमेरिका से दूर रखना है। जिन देशों पर प्रतिबंध लगाया गया है, उनमें सीरिया, ईरान, इराक, लीबिया, सूडान, यमन और सोमालिया शामिल हैं। यह प्रतिबंध चार महीने के लिए लगाया गया है। प्रतिबंध के बाद अमेरीका में कई लोगों को हिरासत में लिया गया है। वहीं मुस्लिम देशों से अमेरीका आने वाली हवाई यात्रा को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। ट्रम्प के इस फैसल से गूगल की परेशानी बढ़ गयी है उसके कई कर्मचारी इस आदेश के बाद दिकक्त में आ गये हैं। प्रतिबंधित देशों के नागरिकों को वीजा देने पर भी रोक लगा दी गयी है। हलांकि इस प्रतिबंध के खिलाफ ईरान ने भी अमेरिकी नागरिकों के लिए दरवाजा बंद कर दिया है। निश्चित तौर पर अमेरीका के लिए यह पफैसला उतना आसान नहीं होगा। फैसले के खिलाफ उसे तीखी आलोचना झेलनी पड़ रही है। उदारवादी सिविल लिबर्टीज यूनियन और काउंसिल आपफ इस्लामिक रिलेशंस ने फैसल को गलत बताते हुए कानून का दरवाजा खटखटाने की बात कहा है। डेमोके्रटिक पार्टी ने इसे अमेरीकी मूल्यों के खिलाफ बताया है। नोबेल पुस्कार विजेता मलाला युसुफजई भी प्रतिबंध को मानवाधिकारों के खिलाफ मानती हैं। उनके विचार में हिंसाग्रस्त इलाकों में मासूम बच्चे अपनी जान बचाकर भाग रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिबंध लगाना उचित नहीं है।

संयुक्तराष्ट्र संघ ने भी अमेरीका को फैसल पर विचार करने के लिए कहा है। संबंधित शरणार्थी संस्था ने एतराज जाहिर करते हुए कहा है कि हिंसा से बच कर भाग रहे लोगों की सुरक्षा समय की मांग है। उधर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी शरणार्थियों के लिए बुरी खबर बताया है और उन्हें निशाना बनाए जाने की बात कही है। फ़्रांस  भी ट्रम्प के फैसल के विरोध में है ,उसने इसे अतंरराष्टीय समझौते के खिलाफ बताया है, शरणार्थियों की रक्षा को प्राथमिकता बताया है। अमेरीका और रूस के संबंधों में नरमाहट आयी है। डोनाल्ड सकराकर आने के बाद ब्लादीमिर पुतिन और काफी करीब आ गए हैं। आतंकवाद के खिलाफ एक मंच पर आ रहे हैं। ओबामा राज में रूस यूक्र्रेन पर अमेरीकी नीति के खिलाफ था। रूस पर हिलेरी चुनाव को प्रभावित करने का भी आरोप लग चुकी हैं। ओबामा राज में पुतिन के रिश्ते बेहद तल्ख थे। राज बदलते ही सुरों और दिलों की ताल बदल गयी है। दोनों मुल्कों के सबसे ताकतवर नेतृत्वों ने आपस में टेलीफोनिक वार्ता के बाद सीरिया से इस्लामिक स्टेट के सफाए के लिए रणनीति बना रहे हैं। संबंधों में भी लचीलापन दिखने को मिल रहा है। एक साथ मिलकर इस्लामिक आतंक के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की भी सोच रहे हैं। ट्रंप और पुतिन अरब-इजरायल, यूक्रेन संघर्ष के साथ परमाणु अप्रसार संधि पर भी विचार कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में दो महाशक्तियों की जुगलबंदी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ नया गुल खिला सकती है। हालांकि डोनाल्ड सरकार के लिए यह फैसला बेहद चुनौती भरा होगा।

अमेरीकी अदालत ने फैसल पर अस्थाई प्रतिबंध भी लगा दिया है। उधर मीडिया से टंप के रिश्ते बेहद बुरे हैं। सरकार ने मीडिया को राष्ट्रपति विरोधी करार दिया है, साथ ही विपक्ष का हिमायती बताया है। डोनाल्ड का यह कदम घरेलू मीडिया में बहस का केंद्र बन सकता है। सरकार ने मीडिया को मुंह बंद कर केवल सुनने की सलाह दी है। जिससे उन्हें वैश्विक समस्याएं झेलनी पड़ेंगी। अतंरराष्यट्री स्तर पर शरणार्थी कानूनों और उनके अधिकारों पर भी सवाल उठ सकता है। जिस पर उन्हें काफी लड़ाई लड़नी होगी। अब सवाल भारत की नीति का है। इस्लामिक आतंकवाद से भारत नाकों चने जबा रहा है। कश्मीर में भातरीय सेना को आतंकवाद के सफाए के लिए भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। भारत में आतंकवाद पाक प्रयोजित है और वह एक इस्लामिक मुल्क है। निश्चित तौर पर भारत को अमेरीकी सरकार के साथ खड़ा होना चाहिए। आतंकवाद चाहे इस्लामिक हो या गैर इस्लामिक, वह आतंकवाद है। भारत को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। लेकिन इसके साथ ही शरणार्थी और मानवाधिकारों का भी सवाल उठता है।

दूसरी तरफ अमेरिका ने जिन सात देशों पर प्रतिबंध लगाया है उनमें कई भारत के मित्र राष्ट्र हैं। ऐसी स्थिति में भारत आतंकवाद के खिलाफ तो अमेरीका के सुर में सुर मिला सकता है, लेकिन शरणार्थियों के प्रतिबंध पर वह अलग हट सकता है। अभी हाल ही में यूएई के सुल्तान भारत आए थे और गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि भी थे। हलांकि अमेरीका ने पूरे इस्लामिक देशों के लिए यह प्रतिबंध नहीं लगाया है उसमें केवल सात राष्ट शामिल हैं, लेकिन दूसरे इस्लामिक देश इस पर अमेरिका के खिलाफ जा सकते हैं। निश्चित तौर पर शरणार्थियों के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। किसी भी मुल्क का समुदाय युद्ध प्रभावित स्थिति में ही दूसरे देश की शरण में जाता है। भारत में बंग्लादेशी और अफगान, के साथ ईरान शरणार्थी इसके ज्वलंत उदारहण हैं। कश्मीरी पंडित खुद अपने मुल्क में ही निर्वासित जीवन यापन को मजबूर हैं, उस स्थिति में भारत डोनाल्ड सरकार की शरणार्थी विरोधी नीति का समर्थन कैसे करेगा। भारत आतंकवाद के खिलाफ अमेरीका के खिलाफ खड़ा हो सकता है लेकिन इस फैसल साथ वह जाएगा, फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता है।