राजशाही में लोकतंत्र का ढोंग….

Pretense of Democracy in Monarchy

Pretense of Democracy in Monarchy

शादाब अली की कलम से

देहरादून | Pretense of Democracy in Monarchy ‘लोकतंत्र’ का सिर्फ नाम भर है। दरअसल, हम ‘राजतंत्र’ में रह रहे हैं। उस राजतंत्र में, जिसे लोकतंत्र के नाम पर ही खड़ा किया गया है। लोकतंत्र की जमीन पर ‘राजशाही’ खड़ा करने की शुरुआत दशकों पहले भले ही कांग्रेस ने की, मगर भाजपा, सपा-बसपा, शिवसेना-तृणमूल, राजद-लोजपा, जनता दल-डीएमके जैसे तमाम दल और कुछ हद तक नई-नवेली आप भी इसे लगातार मजबूत करते आ रहे हैं।

अपने उत्तर प्रदेश उन्नाव में लोकतंत्र को कमजोर करके राजतंत्र यानी राजशाही को स्थापित करने का काम इधर दो दशकों में बहुत तेज़ हुआ है और सपा भाजपा बसपा- तीनो इसमें बराबर के जिम्मेदार हैं। लोकतंत्र में हर 5 साल में अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार आमजन के पास होता है।

मगर, यह दिखावा भर है। हम विधायक या सांसद के रूप में अपना प्रतिनिधि नहीं चुनते। अधिकांश जगह हम विधायक या सांसद के ‘राजतिलक’ समारोह का हिस्सा बनते हैं।

दलों का हाईकमान हर 5 साल में विधानसभा या संसदीय क्षेत्र नामक ‘रियासत’ की ‘प्रजा’ (मतदाता) को फरमान सुनाता है कि यही अबकी बार भी तुम्हारा ‘राजा’ होगा। इसका ही राजतिलक करना तुम्हारी मजबूरी।

इस राजशाही में सम्बंधित ‘राज्य’ का राजा कभी अपने ‘वंश’ से बाहर के किसी ‘सेवक’ (कार्यकर्ता) को अवसर नहीं देता। वह 30-40 साल और उससे ज्यादा तक चिपका रहता है ‘सिंहासन’ पर।

भले ही एक टांग कब्र में लटक रही हो,भले ही मुंह में दांत-पेट में आंत न हो मगर ‘बिगुल’ बजते ही पुराना राजा फिर सज-संवर कर सामने होता है। यकीं न हो तो उन्नाव बांगरमऊ बसपा, सपा में भाजपा- यानी किसी भी दल की सूची उठाकर देख लें।

इस राजशाही में अक्सर राजा दिवंगत होता है तो उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्री, बहू या भाई को गद्दी सौंपने का फरमान ‘हाईकमान’ से आ जाता है। कोई राजा अपने जीते जी ही अपने बेटे-बेटी या बहू को अडोस-पड़ोस की किसी रियासत (विस् क्षेत्र) में स्थापित करवा लेता है।

वहां का पुराने से पुराना कार्यकर्ता खुद आगे बढ़ पाने की आस पर वज्रपात सहते हुए भी इन पत्नियों, पुत्र-पुत्रियों, बहुओं यानी ‘राज वंशियों’ का ‘अनुसेवक’ बनकर इनकी जय-जयकार करता रह जाता है।

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