संजय सिंह
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी एक बार फिर सियासी दलों के निशाने पर है। एक वक्त था जब कांग्रेस ने मुसलमानों के वोटबैंक को सत्ता में आने के लिए खूब इस्तेमाल किया। कई दशकों तक कांग्रेस के साथ रहने के बाद भी तरक्की से दूर रहने वाले मुसलमानों ने इसके बाद समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में भी अपने विकास का अक्स तलाशने की कोशिश की, लेकिन बदले में उन्हें बदहाली ही नजर आयी। हालांकि सभी दल आज भी मुसलमानों के रहनुमा बनने का दावा करते रहते हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों का पिछड़ा हुआ जीवन स्तर हकीकत बयान करने के लिए काफी है।
इन सबके बीच एक बार फिर मुस्लिम धार्मिक गुरू सूबे की सियासत में अप्रत्यक्ष रूप से उतर आये हैं। ये लोग मुसलमानों से अलग-अलग पार्टियों को विधानसभा चुनाव में वोट देने की अपील कर रहे हैं। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी बसपा को वोट देने की अपील कर चुके हैं, तो लखनऊ की ईदगाह के इमाम मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली की अगुवाई में उलेमाओं का प्रतिनिधिमण्डल सपा की तारीपफों के पुल बांध रहा है। इन लोगों का दावा है कि अखिलेश सरकार ने अल्पसंख्यक समुदाय के विकास के लिए कापफी काम किए हैं। इसलिए मुसलमानों को कांग्रेस-सपा गठबन्धन को वोट देने चाहिए।
हालांकि लखनऊ के ही एक और बड़े शिया धार्मिक गुरू मौलना कल्बे जव्वाद इससे इत्तेपफाक नहीं रखते और वह चुनाव में शियाओं से बसपा को वोट देने की अपील कर चुके हैं। इसी तरह कई मुस्लिम धार्मिक संगठन भी अलग-अलग पार्टियों के पक्ष में इस तरह के बयान और समर्थन की बातें कर रहे हैं। राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल यूपी से अपने सारे उम्मीदवार हटाकर मायावती को समर्थन देने का ऐलान कर चुका है। इन सबके बीच असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी भी यूपी के महासमर में कूद चुकी है। उसके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार प्रमुख रूप से है। इसके अलावा वह प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार और कांग्रेस पर भी हमलावर हैं। हालांकि बसपा पर निशाना साधने से वह परहेज कर रहे हैं, क्योंकि यूपी में उनका टारगेट भी दलित, मुस्लिम वोटबैंक है। ओवैसी की कोशिश थी कि चुनाव में बसपा के साथ उनका गठबन्धन हो जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इन सबके बीच बड़ा सवाल है कि धर्म की शिक्षा देने वालों की सियासी अपील का मुसलमान मतदाताओं पर कितना असर हो रहा है और क्या इनका खुद का ईमान हर चुनाव में बदलता नहीं रहा है।
बुखारी इस बार मायावती का समर्थन कर रहे हैं, जबकि वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में वह सपा के साथ थे। तब होने मुलायम सिंह यादव के साथ प्रेस कांÚेंस की थी। इसके बाद बुखारी के दामाद उमर अली खान को विधानसभा चुनाव में टिकट भी मिला था। हालांकि वह चुनाव हार गए, लेकिन फिर भी उन्हें विधान परिषद का सदस्य भेजा गया। इसके बाद वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में शाही इमाम को सोनिया गांधी के नेतृत्व में मुसलमानों का हित नजर आया और उन्होंने मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की अपील की, जिससे साम्प्रदायिक ताकतों को हराया जा सके। इसके बाद 2015 में बुखारी का मन एक बार फिर बदला और उन्होंने आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात कही। खास बात है कि बुखारी एक वक्त में वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी का भी समर्थन कर चुके हैं।
वहीं सपा के वरिष्ठ नेता और बुखारी से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले आजम खां कहते हैं कि काजी के अलावा कोई फतवा जारी कर ही नहीं सकता। काजी की डिग्री होती है। उन्होंने कहा कि बुखारी वास्तव में दिल्ली वक्फ बोर्ड से तनख्वाह लेने वाले मुलाजिम हैं। जो केवल नमाज पढ़ाने के लिए रखे गए हैं। इसलिए किसी पार्टी के समर्थन को लेकर बुखारी की बातों का कोई मतलब नहीं है। वहीं अगर चुनाव के नतीजों पर डालें तो ऐसी अपीलों का आम मुसलमान पर कोई असर होता नहीं दिखा है। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनावों में सपा को 54 फीसदी मुस्लिम वोट मिला था। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनावों में ये घटकर 45 फीसदी रह गया और साल 2012 के चुनावों में जब पार्टी को अब तक की सबसे बड़ी जीत मिली, तब यह घटकर 39 फीसदी ही रह गया। इसके विपरीत वर्ष 2002 में बसपा को 09 फीसदी मुस्लिम वोट मिला था। वर्ष 2007 में यह 17 फीसदी और वर्ष 2012 के चुनाव में 20 फीसदी तक पहुंच गया।
हालांकि कांग्रेस भी मुसलमानों को अपने पक्ष में करने में सपफल रही है। वर्ष 2002 के चुनाव में कांग्रेस को 10 फीसदी मुस्लिम वोट मिला था जो वर्ष 2012 में बढ़कर 18 फीसदी पहुंच गया। साफ है कि मुसलमानों का एक मुश्त वोट भी किसी खास दल को नहीं जाता है। यह विभिन्न दलों में बंटता आया है। इस बार भी मुसलमान वोटर किसकी तरफ जाएगा इसे लेकर स्थिति साफ नहीं है, लेकिन जिस तरह से उनको वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करने वाले सियासी दल और धार्मिक गुरू अपील कर रहे हैं, उससे अच्छा सन्देश नहीं जा रहा है। ये अपील किसी खास दल के पक्ष में न होकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तर्ज पर विकास के लिए मतदान करने की होती, तो यकीनन आम मुसलमान की जिन्दगी बेहतर हो सकती।