डायरी के खोखले और डरावने सच का अंत

सहारा और बिड़ला समूह की डायरियों से निकले सियासी जिन्न का आखिर अंत हो गया। सर्वाेच्च संवैधानिक पीठ यानी शीर्ष अदालत ने इसे सुनवाई के लायक ही नहीं माना और अपर्याप्त साक्ष्य के अभाव में फैसला खारिज कर दिया। डायरी पर राजनीति का रास्ता बंद हो गया। सहारा और बिड़ला समूहों के यहां छापेमारी के दौरान सीबीआई और आयकर विभाग को संबंधित दस्ताबेज मिले थे। उसमें कुछ नेताओं को पैसा देने का आरोप था। डायरी में पैसे देने की तारीख, स्थान और नाम भी दर्ज हैं। साकेंतिक नामों के आधार पर पीएम मोदी और देश के चार मुख्यमंत्रियों का नाम भी इस घेरे में शामिल था। इसमें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और दिल्ली की तत्कालीन सीएम शीला दीक्षित भी थीं। पीएम मोदी पर यह आरोप गुजरात का सीएम रहते लगाए गए थे। इसी आधार पर कामन काज और स्वराज अभियान ने सर्वाेच्च अदालत में याचिका दायर की थी। इसकी पैरवी मशहूर वकील प्रशांत भूषण कर रहे थे।

कांग्रेस के हीरो राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले से पहले जिस तरह संसद से सड़क तक सियासी भूचाल लाने की हवा बांधी थी, अदालत के निर्णय के बाद उसकी खुद हवा निकल गयी। हलांकि इस सियासी साजिश का असर न तो मोदी पर दिखा और न ही देश की मनोदशा बदलती दिखी। निश्चित तौर पर यह नोटबंदी पर गोलबंद विपक्ष की अपरिपक्व राजनीति की बचकाना हरकत साबित हुई। राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों को कोई बात रखने के पहले उसका ठोस प्रमाण रखना चाहिए था। केवल मंचीय भाषणों और कुर्ते की बाहें मोड़ने भर से भूकंप नहीं लाया जा सकता। प्रधानमंत्री जैसे गरिमा वाले संवैधानिक पद पर किसी भी तरह का आरोप लगाने के पहले गंभीरता से विचार करना था।

कांग्रेस आज भले हाशिए पर हो लेकिन वह कल की उम्मीद है। यह बात भाजपा और कांग्रेस अच्छी तरह समझते हैं। अवाम के सामने सशक्त राजनीतिक विकल्प के रूप में इन दो दलों के अलावा कोई तीसरा कतार में खड़ा नहीं दिखता। दूसरी तरफ कांग्रेस और राहुल गांधी के पास जैन बंधुओं और बोफोर्स डायरी का सबसे बड़ा सच था। पूर्व पीएम रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी पर बोफोर्स तोपों के सौंदेबाजी में दलाली का आरोप लगा दिल्ली दरबार तक पहुंचे थे, लेकिन उसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। हलांकि उनकी साजिश हद तक कामयाब रही लेकिन उसका जीवनकाल कितना रहा और अजांम क्या हुआ, किसी से छुपा नहीं है। नोटबंदी के बाद जिस तरह जनता मोदी के साथ दिखी, वह बात कांग्रेस और प्रतिपक्ष को खल रही थी। भाजपा और मोदी के खिलाफ प्रतिपक्ष की गोलबंदी और रणनीति नोटबंदी के खिलाफ सफल होती नहीं दिख रही थी। इसकी वजह जनता ही है। विपक्ष के लाख हंगामें और जिल्लत झेलने के बाद भी नोटबंदी पर मोदी के साथ रही। लिहाजा राहुल गांधी की एक पुराने फटे बम के इस्तेमाल के जरिए सियासी भूकंप लाने की कोशिश नाकाम साबित हुई। अदालत के इस निर्णय का असर पांच राज्यों के चुनाव में भी दिखेगा। भाजपा जहां सर्जिकल स्टाइक, नोटबंदी के साथ इसका भी उल्लेख करने से गुरेज नहीं करेगी, वहीं कांग्रेस और विपक्ष का हाथ खाली रहेगा।

सियासी जय पराजय के इस खेल में निश्चित तौर पर भाजपा और पीएम मोदी की विजय हुई है जबकि प्रतिपक्ष खेत हुआ। राजनीति और मंच की भाषा चाहे जो होती, लेकिन अदालत अगर इस पर एसआईटी गठन की अनुमति देती तो यह भाजपा और पीएम मोदी के लिए किसी डरावने सच से कम साबित नहीं होता। विपक्ष का दांव उसके गले की हड्डी बन गया। इस मामले को केजरीवाल और प्रशांत भूषण पहले की उठा चुके थे। अदालत की तरफ से की गई टिप्पणी राजनीति और उसके व्यवहार पर सवाल उठाती है। शीर्ष अदालत ने अपनी टिप्पणी में साफ तौर पर कहा है कि अगर अपर्याप्त साक्ष्य वाले मामलों में इसी तरह जांच का आदेश दिया जाता रहा तो संवैधानिक पदों पर बैठे लोग काम नहीं कर पाएंगे और यह लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा होगा, वह सुरक्षित नहीं रह पाएगा। अदालती निर्णय के बाद एक बात जो उभर कर आयी है, वह बेहद अहम है। क्या राजनीति की गिरती साख स्वस्थ्य परंपरा की तरपफ बढ़ेगी। राजनीति क्या करप्शन और घोटालों के आरोप-प्रत्यारोप से बाहर आएगी।

सत्ता के लिए कीचड़ में कंकड़ मारने की रीति नीति बंद होगी। जब यह मामला शीर्ष अदालत में विचाराधीन था तो राहुल गांधी को इस तरह की ओछी राजनीति नहीं करनी चाहिए थी। राहुल गांधी एक बड़े राजनीतिक दल के उत्तराधिकारी हैं, उनकी सोच में कुछ अलग दिखना चाहिए। वह इंदिरा गांधी और पंड़ित जवाहर लाल नेहरू की विरासत हैं। उनकी सोच अलग होनी चाहिए, साथ ही कुछ अलग हट कर राजनीति करनी चाहिए। उन्हें तो देश के युवाओं का पालटिक्स आईकान बनना चाहिए था, लेकिन जो जिम्मेदारी उन्हें संभालनी चाहिए थी वह मोदी संभाल रहे हैं। लोकतंत्र और उसकी सवस्थ्य परंपरा के लिए यह सेहतमंद नहीं है। सिर्फ सियासी रेटिंग के लिए प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर हमले करना ठीक नहीं है। निश्चित तौर पर कांग्रेस 60 साल तक सत्ता की धुरी रही है, उस परिधि से बाहर होने का उसे दुःख है। फिर भी वापसी का यह नीतिगत नजरिया नहीं है। शिगूफे की राजनीति से व्यवस्था को नहीं बदला जा सकता। भाजपा और कांग्रेस दोनों अच्छी तरह जानती हैं कि अवाम को सपने बेच कर अधिक दिन तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। गरीबी नारों से नहीं मिटती है। मंच सत्ता का माध्यम हो सकता है लेकिन स्वस्थ्य राजनीति का नहीं। सत्ता और प्रतिपक्ष को अपने लोकतांत्रिक दायित्वों का खयाल रखना चाहिए। पब्लिक सबकुछ जानती है।

वक्त आने पर अच्छे बुरे का फैसला वह खुद-ब-खुद कर देती है। अदालत का फैसला व्यवस्थागत और संवैधानिक है। लेकिन लोकतंत्र में जन अदालत सबसे बड़ी होती है। यह कांग्रेस से बेहतर कोई नहीं जान सकता। 60 सालों तक राज करने वाली कांग्रेस आज सिर्फ आठ राज्यों और 44 सीटों तक सीमट गयी है। फिर जनता के विश्वास को 60 माह तो दीजिए। जहां तक सवाल डायरियों के सच का है, उससे भी कांग्रेस और राहुल गांधी भलीभांति परिचित हैं। जैन बंधुओं की बात हो या बोफोर्स की डायरी का, उसका सच, आज तक अवाम के सामने नहीं आ पाया। फिर इस ओछी सियासत का क्या मतलब है। नोटबंदी के बाद भी नगर निगमों और उपचुनावों में भाजपा को भारी जीत मिली है। पांच राज्यों के फैसले इस पर भी मुहर लगा देंगे। फिर इतने उतावले होने की जरूरत ही क्या है। थोड़ा वक्त दीजिए, सब कुछ साफ हो जाएगा कि नोटबंदी का फैसला उचित था या गोलबंदी का।