corporal punishment

देवेंद्र कुमार बुड़ाकोटी
देहरादून के एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय की एक वीडियो हाल ही में इंटरनेट पर वायरल हुई, जिसमें छात्र कुदाल और बाल्टियों की मदद से स्कूल के बाहर दीवार के पास रखे रेत और बजरी को लेकर स्कूल के अंदर जाते दिख रहे थे। शिक्षा विभाग ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए बाल श्रम कानून के तहत उस स्कूल के हेडमिस्टर को निलंबित कर जांच के आदेश दिए।
खबरों के अनुसार, हाल ही में हुई बारिश की वजह से स्कूल के मुख्य द्वार पर गड्ढे बन गए थे, जिन्हें भरने के लिए छात्रों ने सड़क किनारे उपलब्ध रेत और बजरी से गड्ढे भरने का सुझाव दिया था। जबकि हेडमिस्टर ने न तो इस सुझाव में शामिल होने की बात मानी है और न ही छात्रों की इस कार्रवाई में उनकी सहमति है, लेकिन विभाग ने बिना मामले की पूरी पड़ताल किए उन्हें निलंबित कर दिया।
जब मैंने यह बात अपने 87 वर्षीय माताजी से कही, तो उन्होंने अपने गांव के स्कूल की याद दिलाई, जहां छात्र हर तरह के ‘श्रमदान’ करते थे। वे शिक्षकों के लिए पानी लाते, रसोई के लिए लकड़ी लेकर आते और यहां तक कि बर्तन भी धोते थे। मैंने कहा, आज के समय में तो न सिर्फ छात्रों को डांटना मुश्किल है, बल्कि शारीरिक दंड भी कानूनी अपराध बन चुका है।
फिर भी मेरा मानना है कि अतीत में और आज भी ‘श्रमदान’ को किसी भी कानून के तहत अपराध नहीं माना जाना चाहिए। कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि क्या स्कूल के गेट पर गड्ढे भरने का काम बाल श्रम के अंतर्गत आता है। अगर ऐसा हुआ तो स्कूलों में छात्रों द्वारा की जाने वाली सभी स्वैच्छिक सेवाओं—‘श्रमदान’—पर भी संदेह होगा। इससे छात्रों को अपने कक्षाओं, स्कूल और आसपास की सफाई खुद करने का अवसर नहीं मिलेगा, जो उनके घरों पर भी लागू होता है।
श्रमदान को शिक्षा प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा माना जाना चाहिए ताकि छात्रों में देश के प्रति जिम्मेदारी और अच्छे नागरिक बनने की भावना विकसित हो।
जापान का उदाहरण लें, जहां स्कूलों में ‘सफाई का समय’ होता है। जापानी छात्र न केवल अपने कक्षाओं बल्कि स्कूल के गलियारों और शौचालयों की भी खुद सफाई करते हैं। इससे उनमें साफ-सफाई की आदत पड़ती है जो स्कूल और सार्वजनिक स्थानों दोनों तक फैलती है। कई लोग मानते हैं कि यह समय छात्र खुद पर ध्यान केंद्रित करने और मानसिक शांति पाने का मौका भी देता है।
हम जापानी संस्कृति की हूबहू नकल नहीं चाहते, लेकिन अपने स्कूलों की संरचना और शिक्षा स्तर को बेहतर जरूर बना सकते हैं। इसका प्रमाण यह भी है कि अधिकतर शिक्षक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं।
भारतीय संस्कृति में स्वैच्छिक कार्य, यानी ‘श्रमदान’, की परंपरा सदियों पुरानी है। यह केवल स्कूलों और कॉलेजों तक सीमित नहीं बल्कि पूरे देश में सामाजिक संस्थाओं द्वारा भी किया जाता है। इस मामले में प्राथमिक विद्यालय के छात्रों ने खुद पहल कर गड्ढे भरने का श्रमदान किया, जिसे सम्मानित किया जाना चाहिए था। परन्तु उन्हें मजबूरी में मजदूरी करने वाला समझा गया, जो बिल्कुल गलत है। दुख की बात है कि हेडमिस्टर को भी इस मामले में गैरजिम्मेदारी के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया, जबकि वे खुद इस योजना या कार्रवाई में शामिल नहीं थे।
अब हमें देश भर के स्कूलों, कॉलेजों और शैक्षणिक संस्थानों में ‘श्रमदान’ के दायरे और सीमाएं स्पष्ट करनी होंगी ताकि छात्रों की स्वैच्छिक सेवा को प्रोत्साहित किया जा सके, न कि दंडित।
लेखक समाजशास्त्री हैं और लगभग चार दशकों से विकास क्षेत्र में सक्रिय हैं।